शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा यूक्रेन की राजधानी कीव के एक बगीचे में लगी महात्मा गांधी की मूर्ति को श्रद्धा सुमन भेंट करने के अवसर पर कुछ अति उत्साही भारतीयों द्वारा ‘हर-हर मोदी’ और ‘जय श्री राम’ के नारे लगाने से माहौल की संजीदगी को कुछ हद तक ठेस पहुंची होगी। कुछ मिनट बाद, रूस-यूक्रेन युद्ध में मारे गए लोगों के यादगार स्मारक के सामने मोदी और व्लोदिमीर ज़ेलेंस्की के बीच हुई मुलाकात में भावनाएं जिस प्रकार स्पष्टतः उमड़ती दिखी, वह भारत के समक्ष उत्पन्न उस धर्मसंकट का भी द्योतक रही, जो इस युद्ध में मध्य मार्ग चुनने से बना है।
पृष्ठभूमि समझने में ज्यादा मुश्किल नहीं। रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया और इसकी भरपूर निंदा होनी चाहिए – कई भारतीयों के अलावा बहुत से रूसी भी इसकी आलोचना करते हैं। लेकिन बारीकी से देखने पर, अन्य संदर्भ सामने आ जाते हैं। दो साल पहले, नाटो का विस्तार ठीक अपनी सीमा तक पहुंचते देख असुरक्षा की भावना से भरे रूस ने यूक्रेन पर चढ़ाई कर दी। अब यह लड़ाई ऐतिहासिक रूप से साझेदार और सह-धर्मियों के मध्य हार-जीत को लेकर कम बल्कि विश्व पटल पर रूस की जगह को लेकर रूस-अमेरिका के बीच जारी खींचतान की वजह से ज्यादा है।
हर कोई, विशेष रूप से यूक्रेनियन, जानता है कि अगर अमेरिका के साथ-साथ पश्चिमी जगत के बड़े हिस्से ने ज़ेलेंस्की के लोगों को अत्याधुनिक हथियार नहीं दिए होते,तो युद्ध कब का खत्म हो चुका होता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और निर्दोष लोगों की मौत लगातार जारी है। बड़ी शक्तियों का राजनीतिक खेल हावी हो चुका है। यूक्रेन का यह युद्ध अब इस उद्देश्य को लेकर है : ‘कौन बनेगा दुनिया का दादा’? 1991 के अंत में सोवियत संघ के विघटन के बाद, साफ है अमेरिका दुनिया की एकमात्र महाशक्ति वाला अपना ओहदा छिन जाने को लेकर तैयार नहीं। रूसी भले ही आज अमेरिकियों जितने मजबूत न हों, लेकिन फिर भी काफी शक्तिशाली हैं,और उनका जोर इस बात पर है कि शीर्ष पर एक से अधिक के लिए गुंजाइश है। हमेशा की तरह,चीन ‘देखो और इंतजार करो’ वाली अपनी नीति के साथ, खुद को दोनों पक्षों के साथ खड़ा दिखाए रखने को उत्सुक और इच्छुक है– जहां एक और वे अमेरिका के साथ अपना व्यापार बढ़ा रहे हैं वहीं ठीक उसी वक्त व्लादिमीर पुतिन की घर और बाहर, दोनों जगह, प्रासंगिक बने रहने की चिंता भरी जरूरत का समर्थन भी करते नजर आ रहे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी और भारत का रुख क्या है? जारी इस महा खेल में भारत किसकी तरफदारी करे, इसका उत्तर जटिल है। मोदी ने दुनिया के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक कीव में जब ज़ेलेंस्की से कहाः ‘भारत शांति की दिशा में किसी भी प्रयास में सक्रिय भूमिका निभाने’ को तैयार है, इससे कुछ पल पहले, दोनों ने एक-दूसरे को गर्मजोशी से गले लगाया था – कुछ हद तक उस लंबी गलबही की तरह जो मोदी और पुतिन ने छह सप्ताह पहले मॉस्को के बाहरी हिस्से में स्थित पुतिन के घर में डाली थी और जिसको लेकर ज़ेलेंस्की ने खुले तौर पर माना था कि इसने उन्हें परेशान कर डाला था। कुछ क्षण बाद, मोदी ने अपना बायां हाथ ज़ेलेंस्की के बाएं कंधे पर रखा, जैसा कि बड़े भाई अक्सर अनुज के साथ करते हैं, और कुछ देर वहीं रखे रखा, इस बीच फोटोग्राफरों ने कई तस्वीरें लीं।
ऐसा लगता है कि मोदी वास्तव में द्रवित हुए – यह अच्छी बात है कि वे हुए। भारत आमतौर पर कमज़ोर के साथ खड़ा होता है – पूर्व पूर्वी पाकिस्तान में मुक्ति वाहिनी का सहयोग इसका एक बढ़िया उदाहरण है। लेकिन यहां तो कुछ और ही होता नजर आ रहा है। ऐसा लगता है मानो मोदी को एक तरह से राज़ी किया गया हो कि वे यूक्रेनियोंं के साथ खड़े दिखाई दें – और इस तरह, परोक्ष रूप से अमेरिका के साथ। अमेरिकियों ने मोदी की मॉस्को यात्रा पर अपनी नाराजगी जाहिर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। तथ्य यह है कि पिछले दो वर्षों में, भारत द्वारा रूस से रियायती दर पर भारी मात्रा में तेल खरीदने से व्यापार के आंकड़े में भारी उछाल बनने के बावजूद, भारत-अमेरिका के बीच लेन-देन अभी भी भारत-रूस व्यापार से दोगुना है।
पश्चिम में जो लोग यूक्रेन पर रूसी आक्रमण की निंदा करने से इनकार करने पर भारत की आलोचना करते हैं, उन्हें अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है – स्वयं पर पक्षपाती होने का आरोप लगने के जोखिम पर, उदाहरणार्थ, उनसे पूछा जाए ः ‘आपने इस्राइल द्वारा गाज़ा के अस्पतालों, स्कूलों और संयुक्त राष्ट्र परिसर पर की जाने वाली बमबारी रोकने के लिए क्या किया’? या फिर, मुख्य सहयोगी पश्चिमी मुल्क – जिनमें अधिकांश पांच सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में हैं – क्या इनमें किसी एक ने उस वक्त असहमति की एक छोटी अंगुली तक उठाई, जब 2003 में सद्दाम हुसैन द्वारा सामूहिक विनाश के हथियारों का उपयोग करने की आशंका जताते हुए स्पष्ट रूप से झूठी अफवाह फैलाकर, अमेरिका ने इराक पर बमबारी करने का फैसला किया था। रुको जरा, एक सेकंड – सद्दाम के पास ऐसा कुछ भी नहीं निकला।
इस बीच, ठीक उसी समय जब मोदी यूक्रेन में थे, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की वाशिंगटन डीसी की यात्रा क्या महज़ इत्तेफाक है- अमेरिकियों के साथ एक-दो रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर करना एक अच्छी बात है। लेकिन यदि यह संयोग नहीं है,तो इससे दो अन्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। प्रथम, अमेरिका अपने फैसलों पर जताई असहमति को लेकर सहज नहीं है, भले वह किसी सहयोगी लोकतंत्र ने दिखाई हो। अवश्य ही मोदी को कीव में ज़ेलेंस्की से मिलने के लिए राज़ी करने की कोशिश में, दिल्ली और वाशिंगटन डीसी के अलावा कई अन्य पश्चिमी राजधानियों के बीच काफी बातचीत हुई होगी।
और दूसरा, स्पष्ट है कि यूक्रेन का मामला मोदी की अब तक की सबसे कठिन विदेश नीतिज्ञ चुनौती बनता जा रहा है। यहां, फिर से याद रखें कि यूक्रेन मुद्दे की अहमियत अमेरिकियों के लिए केवल एक बहानेभर की है। यूक्रेन के साथ खड़ा होने में कोई हर्ज नहीं है- पुतिन या बाइडेन जो कुछ भी कहें, अपनी और से चीजों की जांच करना बेहतर होगा। यदि प्रधानमंत्री मोदी ‘बिल्लियों की लड़ाई’ में पैंतरेबाज़ी करने में सक्षम रहे, जैसा कि उनके कई पूर्ववर्तियों ने कर दिखाया, तो वे विश्व पटल पर भारत का विशिष्ट स्थान पुनः स्थापित करने में सफल होंगे।
निश्चित रूप से, दुनिया बदलाव के किसी भी स्व परिभाषित संकेत पर नज़र रखेगी– जैसा कि मोदी की मास्को यात्रा पर बनाए रखी। पश्चिमी जगत भारत का साथ जीतना चाहता है – अपनी धूल-मिट्टी के बावजूद, यह खांटी लोगों का देश है।
इसके अतिरिक्त, बाइडेन, ऋषि सुनक, इमैनुएल मैक्रॉन, ओलाफ स्कोल्ज़ और कुछ अन्य, जो सब एक ही पाले में हैं, इनके बरक्स भारत का रुख सदा अपना रहा है – राष्ट्रीय हित और उच्च नैतिकता के बीच लंबी और कठिन डगर एक चुनौती है, वह जिसके प्रति उत्तरदायित्व है। इसलिए हाल-फिलहाल, प्रधानमंत्री द्वारा कीव से वापसी की रेलगाड़ी पकड़ने के साथ, अपरिहार्य निष्कर्ष यह है कि मोदी की यूक्रेन यात्रा अपने आप में संदेश है, भारत और दुनिया, दोनों के लिए।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।