कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में एक युवा प्रशिक्षु डॉक्टर की बलात्कार एवं हत्या ने न केवल पश्चिम बंगाल में बल्कि समूचे देश में रोष एवं उद्वेलन पैदा किया। पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी दल और पुलिस पर इस जघन्य अपराध की जांच में तेजी न लाने का आरोप लगा है। केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार और राज्य सरकार एक-दूसरे पर आरोप लगाने में लगे हैं। आरोप-प्रत्यारोपों का राजनीतिक खेल चला हुआ है, जिसमें पुलिस फुटबॉल की तरह बनी हुई है। अब जबकि जनता के भारी दबाव के बाद, जांच सीबीआई को सौंपी जा चुकी है, तो सूबा सरकार पड़ताल कुछ ही दिनों में पूरी करने की मांग करने लगी है। खुद को राजनीतिक नुकसान से बचाने के लिए, इसके सदस्य आरोपियों के लिए मौत की सज़ा की मांग करने के लिए सड़कों पर उतर आए।
कोलकाता बलात्कार-हत्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए तीखी टिप्पणियां की हैं। इसने राज्य सरकार को एक नोटिस भेजा है और एक कार्य बल का गठन किया है जो अस्पतालों में सुरक्षा की समीक्षा करने के बाद सुधार के उपाय बताएगा, और कुछ अन्य सुझाव अपनी तरफ से भी दिए हैं।
कोलकाता में कुछ दिन पहले एक और समस्या उत्पन्न हुई, जब शहर के विभिन्न इलाकों में कानून-व्यवस्था की नाज़ुक स्थिति को संभालने के लिए अधिकांश पुलिस बल की तैनाती के कारण साल्ट लेक स्टेडियम में मोहन बागान और ईस्ट बंगाल के बीच डूरंड कप फुटबॉल मैच रद्द करना पड़ा। इससे भड़के युवाओं की भीड़ ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। लाठीचार्ज किया गया और कई प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया।
उधर, महाराष्ट्र के बदलापुर में दो स्कूली छात्राओं से छेड़छाड़ की घटना ने देशभर में व्याप्त आक्रोश को और बढ़ा दिया। हमारे देश में भयावह अपराध और राजनीतिक कीचड़ उछालना कोई नई बात नहीं है। वर्षों से यही होता आया है और होता रहेगा, क्योंकि मूल बीमारी का इलाज कोई नहीं करना चाहता, केवल लक्षणों का उपचार करने में लगे रहते हैं। व्याधि यह है कि सूबों में पुलिस सत्तारूढ़ दल की निजी सेना बनकर रह गई है क्योंकि पुलिस अधिनियम, 1861 के अंतर्गत वह कार्यपालिका के प्रति जवाबदेह है – इसका मतलब है सत्तारूढ़ दल के नेताओं के आदेश से बंधना। कहने की जरूरत नहीं है कि तमाम राजनीतिक दल पुलिस पर इस किस्म के नियंत्रण से बहुत खुश हैं। यह बात भारत के सभी सूबों और पार्टियों के लिए सच है। इसीलिए आम नागरिक के लिए कोई न्याय नहीं है, क्योंकि पुलिस ज्यादातर सत्ताधारी पार्टी के निर्देशों के अनुसार काम करती है, खासकर जब मामला हाई-प्रोफाइल अपराध का हो। कार्रवाई भी सत्तारूढ़ दल के हितों को ध्यान में रखकर की जाती है।
बेशक, अपना काम कुशलतापूर्वक नहीं करने के लिए दोष पुलिस नेतृत्व पर भी आता है, दुर्भाग्यवश इसके पीछे काफी हद तक वजह है भ्रष्टाचार और करिअर हितों के कारण फर्ज से समझौता करना, लिहाजा कई पुलिसकर्मी राजनेताओं से हाथ मिला लेते हैं, मुख्यतः इसलिए भी क्योंकि यह राजनेता ही हैं, जो उन्हें तरक्की-इनाम दिलवा सकता है या फिर कई तरीकों से तंग कर सकता है।
हम अभी भी 1861 के कानून पर अटके पड़े हैं। एक बार पुलिस को संविधान और संसद के प्रति जवाबदेह बना दिया जाए तो स्थिति में काफी सुधार होगा। तब हमारी पुलिस भी कई अन्य देशों की भांति बिना किसी डर के, कानून के अनुसार स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकेगी। हालांकि, सोली सोराबजी समिति द्वारा मॉडल पुलिस अधिनियम बनाए कई साल गुजर गए। लेकिन कोई भी इस पर अमल नहीं करना चाहता, यहां तक कि केंद्र सरकार भी नहीं।
हैरत यह है कि सुप्रीम कोर्ट, जिसने खुद 2006 में पुलिस सुधारों पर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था, वह भी अपने निर्देशों पर अक्षरश: कार्रवाई नहीं करने के लिए राज्य सरकारों को अवमानना नोटिस जारी करने को उत्सुक नहीं है। सूबा सरकारों ने उन निर्देशों पर महज लीपापोती की है। अंग्रेजों ने हमें पुलिस के लिए जो कानून और प्रक्रियाएं दीं, वे समय की जरूरत के अनुसार बदलती थीं और तेजी से अद्यतित होती थीं। राजनीतिक दलों द्वारा मामलों का राजनीतिकरण न किए जाने से न्याय त्वरित होता है। ब्रिटेन में हाल ही में हुए दंगों में, बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के, कुछ दंगइयों को अपराध किए जाने के कुछ ही दिनों के अंदर 20 महीने के लिए जेल भेज दिया गया है! क्या आप भारत में ऐसा होने की कल्पना कर सकते हैं?
एक अन्य समस्या देश में पुलिस बल की दयनीय स्थिति है। गंभीर अपराध वाले मामलों की तफ्तीश करने में पुलिस को कई प्रकार के संसाधनों की कमी का सामना करना पड़ता है। तिस पर संख्या बल कम है। भवन, वाहन, उपकरण आदि से संबंधित ढांचागत कमियों के अलावा साइबर अपराध जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए लगभग पांच लाख रिक्तियां हैं…, सूची अंतहीन है।
पुराने ज़माने के कानून और प्रक्रियाएं न्याय प्रदान करने में एक अन्य बाधा है। हाल ही में लागू हुए नए आपराधिक कानूनों में भी कई खामियां हैं। दुखद यह है कि इन कानूनों को बनाते वक्त पुलिस अधिकारियों, वकीलों और न्यायाधीशों से सलाह नहीं ली गई है, जबकि आपराधिक मामलों को रोजाना वही देखते हैं। इसके अलावा, पिछले कुछ वर्षों में, केंद्रीय पुलिस बलों को तरजीह देकर राज्य पुलिस बलों की उपेक्षा की गई है, इसके जिम्मेवार कुछ हद तक राज्य सरकारें भी हैं, क्योंकि पुलिस विभाग सूबा सरकार का विषय है।
हर कोई, जो इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है, ब्रिटिश व्यवस्था की तर्ज पर न्यायिक सुधार, यानी त्वरित न्याय की बात कर रहा है, लेकिन ज़मीन पर कुछ भी नहीं हो रहा है। न्यायिक अदालतों में लगभग पांच करोड़ मामले लंबित पड़े होने और यह संख्या दिन-ब-दिन बढ़ते जाने से आम नागरिक के लिए कोई उम्मीद नहीं रह गई। इस बाबत कोई कुछ नहीं कर रहा।
इसलिए, भारत में आम आदमी के लिए न्याय तब तक मिलना मुश्किल है जब तक कि आवश्यक कार्रवाई पर्याप्त तेजी से नहीं की जाती। हमारे पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए, निकट भविष्य में यह होने की संभावना नहीं है।
लेखक मणिपुर और त्रिपुरा के पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं।