नेमिषारण्य में ऋषि के आश्रम में रहकर उनका एक साधक शिष्य भगवान की उपासना में लीन रहता था। एक दिन उसने गुरुदेव के चरण दबाते हुए पूछा, ‘गुरुदेव, यदि भगवान मेरी साधना से प्रसन्न होकर वर मांगने को कहें तो क्या मांगना चाहिए?’ ऋषि ने कहा, ‘भगवान से मांगना बुद्धि अर्थात ज्ञान। ज्ञान से बड़ी और मूल्यवान संसार में कोई वस्तु नहीं है।’ ‘यदि भगवान दूसरा वर मांगने को कहें तो क्या मांगूं?’ गुरुदेव ने कहा, ‘भक्ति मांगना। भगवान के प्रति, माता-पिता के प्रति भक्ति-भावना रखने वाला व्यक्ति सौभाग्यशाली होता है।’ शिष्य ने पूछा, ‘तीसरा वर क्या मांगना चाहिए?’ गुरु ने बताया, ‘सेवा व परोपकार में लगे रहने की प्रवृत्ति। सेवा व परोपकार सर्वोपरि धर्म है।’ उन्होंने शिष्य को समझाया, ‘सद्बुद्धि, सेवा व परोपकार-ये तीन ऐसे दुर्लभ गुण हैं कि इनसे संपन्न मानव के लिए स्वर्ग भी व्यर्थ है।’
प्रस्तुति : डॉ. जयभगवान शर्मा