टीवी पर एक कार्यक्रम आया करता है ‘आपकी अदालत’। इस अदालत के ‘वकील’ से किसी ने पूछा था, ‘अभिनेता अच्छे नेता होते हैं या नेता अच्छे अभिनेता’, तो ‘वकील साहब’ को यह कहने में तनिक भी देरी नहीं लगी कि नेता अच्छे अभिनेता होते हैं! और इस उत्तर पर श्रोताओं ने खूब तालियां बजायी थीं– अर्थात श्रोता भी यह जानते-मानते थे कि हमारे नेता अच्छे अभिनेता हैं! नेता-अभिनेता वाला यह प्रसंग आज अचानक तब याद आ गया जब एक नयी-नयी नेता बनी अभिनेत्री को किसान-आंदोलन के संदर्भ में यह कहते सुना कि हमारे देश में भी बांग्लादेश जैसे हालात पैदा करने का षड्यंत्र रचा जा रहा था। उसी सांस में उस नेता-अभिनेता ने यह भी कह दिया कि साल भर से अधिक समय तक चलने वाले उस आंदोलन में ‘लाशें लटकी हुई थीं और बलात्कार हो रहे थे।’ यह सही है कि उस आंदोलन के दौरान अनेक किसानों की मृत्यु हुई थी, पर उसे ‘लाशें लटकना’ कहना क्या माने रखता है, यह बात शायद उस अभिनेता को समझ नहीं आयी थी, और फिर किसान आंदोलन के दौरान दुराचार की बात करने से कितना राजनीतिक नुकसान हो सकता है, यह भी उस अभिनेत्री की समझ से परे की बात थी।
यह नेता-अभिनेता भाजपा की सांसद हैं, और भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस नुकसान को समझ रहा था। उसने तत्काल इस नए नेता को चुप रहने का आदेश दिया। स्पष्ट कह दिया गया कि यह नयी बनी नेता अपने मन की बात कह रही थी, और पार्टी की ओर से नीति-विषयक बयान देने का उसे कोई अधिकार नहीं है। निकट भविष्य में ही हरियाणा में होने वाले चुनाव को देखते हुए भाजपा की यह सफाई ज़रूरी थी। इस स्पष्टीकरण से नुकसान की कितनी भरपाई हुई है यह तो आने वाला कल ही बतायेगा, पर यह सारा प्रसंग इस बात का एक और उदाहरण है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व सुर्खियां बटोरने और राजनीतिक लाभ उठाने के लिए, कभी भी, कुछ भी कह सकता है!
ऐसे अवसर पर बड़ी आसानी से राजनीतिक नेतृत्व यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेता है कि यह कथित नेता का निजी बयान है। सवाल उठता है, इस तरह की निजी राय रखने वाले व्यक्ति को राजनीतिक पार्टियां तरजीह ही क्यों देती हैं? किसी भी राजनीतिक दल का सदस्य होने का सबसे महत्वपूर्ण मतलब यह होता है कि व्यक्ति पार्टी की रीति-नीति में विश्वास रखता है। उसका आचरण इसी विश्वास के अनुरूप होना चाहिए। लेकिन, दुर्भाग्य से, हमारे देश में नीतियों के आधार पर राजनीतिक दलों का बनना और चलना अब कतई आवश्यक नहीं रहा! रीतियों-नीतियों को लेकर दावे ज़रूर किए जाते हैं, पर व्यवहार में ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। यदि ऐसा न होता तो नेताओं का आये दिन दल बदलना हमारी राजनीति का हिस्सा नहीं बनता। न किसी व्यक्ति को दल बदलते हुए कोई शर्म आती और न ही किसी दल को किसी ऐसे व्यक्ति को अपने साथ जोड़ने में कोई संकोच होता है जिसे वह कल तक भ्रष्ट, अपराधी और न जाने क्या-क्या कहकर दुत्कारा करता था। मतदाता किसी उम्मीदवार को वोट देते समय जिन दो बातों का मुख्य रूप से ख्याल रखता है, उनमें पहली व्यक्ति की वैयक्तिक ईमानदारी है और दूसरी उसके दल की रीति-नीति। दुर्भाग्य से, अब हमारी राजनीति में इन दोनों बातों का कोई महत्व नहीं रह गया है— महत्व सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ साधने का है।
सामान्य व्यवहार में भी सामान्य जन इस बात का ध्यान रखता है कि ‘चार लोग क्या कहेंगे?’ पर हमारे राजनेताओं को कुछ भी कहने-करने में संकोच नहीं होता। किसी ने भाजपा की उस नेत्री से यह नहीं पूछा कि उसने हत्याओं और बलात्कारों वाली बात किस आधार पर कही थी? और अब भी उसने अपनी उस आपराधिक गलतबयानी पर क्षमा क्यों नहीं मांगी? वस्तुत: जुमलेबाजी हमारी राजनीति का एक ज़रूरी हिस्सा बन गयी है। राजनेता और राजनीतिक दल इस जुमलेबाजी को अपना अचूक हथियार मानर चलते हैं। राजनीतिक स्वार्थ का साधना ही एकमात्र कसौटी है जिस पर वे अपने कहे-किये को नापते हैं! कौन भूल सकता है कि सत्तारूढ़ पार्टी के सर्वोच्च नेताओं में से एक ने बड़ी आसानी से प्रधानमंत्री की 15 लाख रुपये वाली बात को चुनावी जुमला कहकर पीछा छुड़ा लिया था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे को महान घोषित करने वाले को कभी मन से न माफ कर पाने की बात भी हमारे प्रधानमंत्री ने ही कही थी— फिर उसी व्यक्ति को पार्टी का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया! क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या उस नेता को मन से माफ कर दिया गया है? कुछ भी कह कर भूल जाने का यह अधिकार राजनेताओं को किसने दिया है? और सवाल यह भी है कि क्या मतदाता को अपने नेता द्वारा कही गयी बात को याद नहीं रखना चाहिए?
नेताओं की ईमानदारी और मतदाता की सतत् जागरूकता, दोनों, जनतंत्र की सार्थकता की शर्ते हैं। ज़रूरी है कि ये दोनों शर्तें हमें लगातार याद रहें और हम अपनी कथनी-करनी को इन कसौटियों पर लगातार कसते रहें। न तो हम किसी भी नेता को कुछ भी कहने की आज़ादी दे सकते हैं और न ही नेताओं को यह मानने का अधिकार कि वह कुछ भी कह कर बच निकल सकते हैं। यही नहीं, यह मतदाता का कर्तव्य और अधिकार है कि वह अपने नेताओं से उनके कहे-किये का हिसाब मांग सके।
बहरहाल, बात कहने वाली अभिनेत्री-नेता ने अब तक अपने कहे पर पश्चाताप व्यक्त नहीं किया है। हमारे नेता यह मानकर चलते हैं कि जनता की याददाश्त बहुत कमज़ोर होती है। आवश्यकता उनकी इस धारणा को गलत सिद्ध करने की है। नेताओं द्वारा कही गयी हर बात और किया गया हर काम जनता की अदालत में रखा जाना चाहिए। फैसला करने का अधिकार देश की जनता का है, इसलिए जनता का दायित्व बनता है कि वह नेतृत्व के आचरण पर कड़ी नजर रखे। पांच साल में एक बार वोट देना ही पर्याप्त नहीं है, इस बात का भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि हमारे वोट से नेता बना व्यक्ति अपने वादों और दावों पर खरा उतर रहा है कि नहीं। न हम उसे कुछ भी कहने-करने का अधिकार दे सकते हैं और न ही ऐसा अवसर उसे मिलना चाहिए कि वह हमें अपनी मुट्ठी में समझे। राजनेता और राजनीतिक दल, दोनों को यह बात समझनी होगी, और यदि वे नहीं समझते, तो उन्हें समझाना होगा– दांव पर हमारा भविष्य लगा है!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।