स्वामी रामकृष्ण परमहंस के भक्त गिरीश घोष महान बांग्ला नाटककार थे। उनके लिखे ‘शिवाजी’ नाटक को पढ़कर रवींद्रनाथ ठाकुर भी गद्गद हो उठे थे। एक दिन घोष मां शारदा से मिलने जयरामवाटी आश्रम पहुंचे। वहां उन्होंने मां का सारगर्भित प्रवचन सुना और उन्हें लगा कि सब व्यर्थ है। संन्यास लेकर भगवान की उपासना में जीवन बिताना ही उचित है। वे शारदा मां से बोले, ‘मां! अब तक मैं नाटक और कविताएं लिखने और रंगमंच पर अभिनय करने में अपना समय गंवाता रहा हूं, लेकिन अब संन्यास लेकर भगवान की उपासना में जीवन लगाना चाहता हूं।’ शारदा मां मुस्कराकर बोलीं, ‘गिरीश! तुम्हारे लेखन से असंख्य पाठक प्रेरणा लेते हैं। तुम लोकोपकार के कार्य में लगे हो। लोकोपकार से बड़ा भला कौन-सा ईश्वर भजन हो सकता है? मनुष्य के हर सुकृत्य के साथ ईश्वर का भजन स्वयं हो जाता है।’ उनके वचन सुनकर गिरीश चंद्र घोष को बहुत संतोष हुआ।
प्रस्तुति : मुकेश ऋषि