अनिता
वर्तमान युग में मानसिक अवसाद और तनाव के मामले बढ़ते जा रहे हैं। यदि गहराई से देखें तो मन के सारे तनाव का मूल स्रोत व्यक्ति का असंतोष है। कई बार इंसान स्वयं जैसा है उसे स्वीकार नहीं करता। उसका मन सदा किसी आदर्श स्थिति की कल्पना करता है, जो केवल कल्पनाओं में ही संभव होती है। इसलिए तनाव सदा इस बात के कारण होता है कि वास्तव में वह क्या है और क्या बनना चाहता है। व्यक्ति के पास जो आज है, वह उससे खुश नहीं है और वह पाना चाहता है, जो नहीं है।
मन का स्वभाव ही द्वंद्वात्मक है, वह स्वयं का विरोधी है। किसी भी बिंदु पर अपने स्वभाव के कारण मन एकमत नहीं होता। यह हमेशा बंटा हुआ रहता है। व्यक्ति अपने भीतर सदा एक सवाल का सामना करता है, और उसकी सारी शक्ति इस तनाव से बचने में खर्च होती रहती है। इस तनाव से बचने का उपाय है, व्यक्ति स्वयं को जैसा है, पूर्ण रूप से स्वीकार करे। जब कोई ख़ुद को स्वीकारता है, तभी दूसरों को भी, जैसे वे हैं, स्वीकार कर सकता है। इससे उसके भीतर बहुत-सी ऊर्जा बच जाती है, जिसका उपयोग वह अपनी स्थिति सुधारने के लिए कर सकता है। सत्य का अनुभव हो जाना सरल है, पर उस पर टिके रहना कठिन है। मन पुराने संस्कारों को आसानी से पकड़ लेता है और साधक को जो बहुमूल्य वस्तु मिली थी, उससे वंचित कर देता है।
वास्तव में प्रत्येक मनुष्य हर तरह के दुखों से मुक्ति चाहता है, किंतु जो कर्म होते हैं, वे विपरीत फल देते हैं। जब तक हम ध्यान के द्वारा मन के पार जाकर उस स्थान पर टिकना नहीं सीख लेते, मन नीचे ले जाने का हर प्रयास करता है। देह और मन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। स्वस्थ रहने का अर्थ है, रोग रहित देह, पीड़ा रहित मन और सदा कुछ नया सीखने को उत्सुक बुद्धि। स्वास्थ्य के लिए नियमित व्यायाम और सात्विक भोजन, मन के लिए सत्संग और बुद्धि के लिए स्वाध्याय यदि मिलते रहें तो तीनों आनंदित रह सकते हैं। देह में यदि कोई रोग हो गया है तो तुरंत उसका समाधान खोजना चाहिए। इलाज करना चाहिए। मन यदि अवसाद से ग्रस्त है तो ध्यान सीखकर मन को शांत रखने का उपाय खोजना होगा और नवीन विषयों की जानकारी लेते हुए बुद्धि को भी उसकी खुराक देनी होगी। चेतना की ऊर्जा यदि समुचित मार्ग नहीं पाती तो वह भटक जाती है और जीवन, जो आनंद का स्रोत बन सकता था, एक पहेली बन कर रह जाता है।
साभार : अनिता-अमृता डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम