जैन समुदाय का पर्यूषण पर्व चल रहा है। इस पर्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा एक-दूसरे से क्षमा मांगने का भी है –मिच्छामि दुक्कड़म। इन दो शब्दों में जीवन का एक बहुत बड़ा पाठ— जाने-अनजाने में हुई किसी भी भूल या अपराध के लिए एक-दूसरे से क्षमा मांग कर नये सिरे से रिश्तों को संवारना, उन्हें बनाये रखना— छिपा है। आसान नहीं होता क्षमा मांगना। भीतर के अहं का विसर्जन करना होता है पहले। और क्षमा करना भी कम मुश्किल नहीं होता। लेकिन क्षमा मांग कर और क्षमा करके मानवीय रिश्तों को एक नया विस्तार मिलता है। कुछ क्षण के लिए ही सही, हमारे भीतर का मनुष्य जगता तो है। आवश्यकता इस ‘मनुष्य’ को जगाये रखने की है।
क्षमा पर्व की यह बात हमारी राजनीति के तौर-तरीके के संदर्भ में भी याद रखी जानी चाहिए। हाल ही में महाराष्ट्र के मालवण क्षेत्र में छत्रपति शिवाजी महाराज की एक विशाल मूर्ति के ढह जाने से राज्य की राजनीति में आये तूफान ने विपक्ष को जैसे एक जोरदार मुद्दा दे दिया है। पैंतीस फुट ऊंची इस विशालकाय मूर्ति का आठ-नौ महीने पहले ही स्वयं प्रधानमंत्री ने अनावरण किया था। महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज एक इतिहास-पुरुष ही नहीं, देवत्व के स्तर का आराध्य माने जाते हैं। उनकी मूर्ति के अनावरण के लिए स्वयं प्रधानमंत्री के आने के भी राजनीतिक निहितार्थ हैं। इसलिए, इस बात पर भी आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए कि उस मूर्ति के इस तरह भरभराकर गिर जाने को विपक्ष ने राजनीतिक लाभ उठाने का एक अवसर बना लिया है। महाराष्ट्र की राजनीति को देखते हुए यह घटना कम महत्वपूर्ण नहीं है। सत्तारूढ़ पक्ष अच्छी तरह समझता है कि यह उसके लिए बचाव का क्षण है। इसलिए सत्तारूढ़ पक्ष के तीनों घटकों ने इस प्रकरण के लिए क्षमा मांगने में देरी नहीं लगायी।
इस प्रकरण का एक महत्वपूर्ण पहलू स्वयं प्रधानमंत्री का इसके लिए क्षमा मांगना भी है। एक कार्यक्रम के लिए राज्य में आये प्रधानमंत्री ने ‘मेरे और मेरे साथियों के आराध्य छत्रपति शिवाजी महाराज’ से सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगना ज़रूरी समझा। शिवाजी महाराज के लिए आदर-भाव होना ही चाहिए, और जिस तरह वह मूर्ति ढही है उसके लिए दोषियों को सज़ा भी मिलनी चाहिए। लेकिन जिस तरह से इस प्रकरण को राजनीति का एक हथियार बनाया जा रहा है, उससे कुछ सवाल तो उठते ही हैं। उठ भी रहे हैं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री का क्षमा मांगने का लहजा सवालों के घेरे में है। कहा जा रहा है कि क्षमा के साथ विनय का सीधा रिश्ता है। बिना विनयी हुए क्षमा मांगना एक दिखावे के रूप में ही देखा जाता है। जिस तरह विपक्ष ने इस प्रकरण को राजनीतिक लाभ उठाने का अवसर बनाया, उसी तरह महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ पक्ष भी राजनीतिक नुकसान कम करने का प्रयास कर रहा है। प्रधानमंत्री द्वारा क्षमा मांगना इस कोशिश का एक हिस्सा माना जा सकता है।
सवाल उठता है, क्षमा मांगी किससे जा रही है? राजनीति करने वाले मूर्ति के इस तरह ढहने के लिए शिवाजी महाराज से क्षमा मांग रहे हैं। इस तरह क्षमा मांगने में कुछ ग़लत नहीं है, लेकिन यह अपमान छत्रपति शिवाजी महाराज का नहीं है, अपमान महाराष्ट्र की जनता का हुआ है, जिसके लिए शिवाजी देवता हैं। जनता एक विश्वास के साथ किसी पक्ष को सत्ता सौंपती है, निश्चित रूप से इस मूर्ति की स्थापना में कहीं कुछ खोट रहा है। इस खोट के अपराधियों को सज़ा मिलनी ही चाहिए। मूर्ति की स्थापना से जुड़ा वह हर पक्ष अपराधी है, जो इस प्रक्रिया से किसी भी रूप से जुड़ा था– फिर चाहे वह राजनीतिक पक्ष हो, राजनेता हो, अधिकारी हो, या शिल्पी।
बहरहाल, शिवाजी महाराज जैसी विभूति राजनीतिक नफे-नुकसान का माध्यम नहीं बनायी जानी चाहिए। उनकी मूर्ति का लगाया जाना भी उनमें राज्य की जनता की आस्था का प्रतीक है, और मूर्ति का ढहना भी जनता के संतप्त होने का कारण। इसलिए, क्षमा इस देश की जनता से मांगी जानी चाहिए। अपमान उस विश्वास का हुआ है जो जनता अपने नेताओं, अधिकारियों, शिल्पियों आदि में रखती है।
जनतंत्र में सत्ता जनता के हाथ में होती है। जनता ही इस तंत्र को चलाने के लिए कुछ लोगों को चुनती है। इन चुने हुए लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ जनता के विश्वास की रक्षा करेंगे। स्पष्ट है, सिंधुदुर्ग में लगायी गयी इस प्रतिमा के संदर्भ में यह अपेक्षा पूरी नहीं हुई। कोई बड़ी चूक हुई है इस सारे प्रकरण में। क्षमा उस चूक के लिए मांगी जानी चाहिए। प्रकरण से जुड़े हर पक्ष को पूरी विनम्रता के साथ क्षमा मांगनी होगी। सच तो यह है कि बिना विनम्रता के क्षमा मांगने का कोई अर्थ ही नहीं है। विनम्रता का अभाव, दुर्भाग्य से, हमारी राजनीति की एक पहचान बन गया है। हर नेता, जिसके पास किसी भी प्रकार की सत्ता होती है, अपने आप को शासक मान कर बैठा है– जबकि होना उसे जनता का सेवक चाहिए। कहने को तो सब नेता अपने आप को जनता का सेवक कहते हैं, फिर कोई छोटा सेवक कहता है और कोई बड़ा सेवक। लेकिन आज हमारी समूची राजनीति की यह पहचान बन चुकी है कि नेता स्वयं को कहते तो जनता का सेवक हैं, पर उनका समूचा व्यवहार और सोच स्वामी जैसा होता है। आवश्यकता इस स्थिति को बदलने की है। कथनी और करनी का अंतर हमारी समूची राजनीति को भीतर ही भीतर खोखला बना रहा है। इस अंतर को पाटना ज़रूरी है।
इसलिए ज़रूरी है कि जब हम क्षमा मांगें तो लगना चाहिए कि हमें अपने किये का पश्चाताप है, लगना चाहिए कि हमें अहसास है कि कुछ ग़लत हो गया है, और इस ग़लत को ठीक किए जाने का दायित्व भी हमारा है। यही विनम्रता हमारी राजनीति का चेहरा कुछ निखार सकती है। यह विनम्रता भीतर से उपजनी चाहिए, इसके दिखावे से काम नहीं चलेगा। देश के हर स्तर के नेता का दायित्व है कि वह ‘मिच्छामी दुक्कड़म’ की भावना से जिये, और यह जीना उसके व्यवहार में झलकना चाहिए। ग़लती करना अपराध नहीं है, ग़लती को ग़लती न मानना अपराध है। न मानने की इस प्रक्रिया से उबरने की आवश्यकता है हमारे नेताओं को। ऐसा करके ही हम अपनी सोच और व्यवहार में वह विनम्रता ला सकते हैं जो क्षमा मांगने के हमारे कृत्य को सार्थक बनाती है। आज तो स्थिति यह है कि हर नेता दूसरे पर उंगली उठा रहा है। वह यह भी नहीं समझता कि ऐसा करने से तीन उंगलियां स्वयं उसकी ओर उठ रही हैं। जब हमें यह अहसास हो जायेगा तो हम सचमुच क्षमा पाने के अधिकारी होंगे। अन्यथा तो क्षमा मांगना एक राजनीतिक कलाबाजी मात्र ही है। आप चाहें तो इस कलाबाजी को घटिया चाल भी कह सकते हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।