दुनिया में कहीं और की अपेक्षा भारत में लोग अधिक आत्महत्या कर रहे हैं। वर्ष 2016 में भारत में प्रति एक लाख लोगों पर आत्महत्या की दर 16.5 रही, जबकि वैश्विक औसत 10.5 थी। यहां सवाल स्वाभाविक है कि लोगों को अपनी जान लेने की तरफ क्या चीज़ धकेलती है? क्या आत्महत्या की व्याधि एक व्यक्तिगत घटना है या हमारी सामाजिक, प्रशासनिक, आर्थिक, शैक्षणिक और धार्मिक व्यवस्था को आगे आकर इसकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए? मानसिक रोग, ड्रग्स की लत, तलाक, असफल प्रेम संबंध, यौन हिंसा, दिवालियापन, शैक्षणिक विफलता, बेरोज़गारी और गरीबी खुदकुशी करने के मुख्य कारण हैं। इनके अलावा दक्षिण एशियाई देशों में एक और वजह है : समाज में इज्जत को ठेस। भारत में उच्च आत्महत्या दर की वजहों की, विशेषकर समाज के कुछ खास वर्गों में, जांच की जानी चाहिए। विश्व खुशहाली रिपोर्ट-2024 में भारत को 143 देशों में 126वां स्थान मिला है, यह पड़ोस के पाकिस्तान और नेपाल से भी नीचे है। तो भारत में इतने सारे लोग दुखी क्यों हैं? सामान्य कारकों के अलावा, भारत में आत्महत्या के ग्राफ में एक अजीब सी समानता भी है- युवा, निम्न आय वर्ग, किसान और महिलाओं में आत्महत्या की दर ज्यादा है।
15 से 29 आयु वर्ग, जो भारत की जनसंख्या का 53.7 प्रतिशत है, उसमें मौत के कारणों में आत्महत्याओं का हिस्सा काफी अधिक है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2020 रिपोर्ट बताती है, उस साल हर दिन 35 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की। इस वर्ष कोटा में अब तक 13 छात्र यह अतिशयी कदम उठा चुके हैं, जबकि पिछले साल देश के इस कोचिंग के गढ़ में 26 छात्रों ने खुदकुशी की थी। गला-काट प्रतिस्पर्धा, उच्च प्रदर्शन का दबाव और असफलता का डर जिसको कभी-कभी माता-पिता का अधीर रवैया भी हवा देता है- युवा मानस के लिए इनको संभालना बहुत मुश्किल हो सकता है। नौकरी के चाहवान बहुत हैं और नौकरियां अत्यंत कम। लगभग 10 प्रतिशत भारतीय युवा बेरोजगार, नाखुश, चिंतित हैं और उनके पास अपनी रोजमर्रा की जरूरतें तक पूरा करने के लिए संसाधन नहीं हैं। रोजगार के मामले में महिलाएं पुरुषों से काफी पीछे हैं। बहुत बड़ी संख्या में नौकरी के चाहवानों के लिए न सिर्फ नौकरियां बहुत कम हैं, बल्कि निष्पक्ष और योग्यता आधारित भर्तियों की भी कमी है, जिससे आक्रोश और अरुचि उत्पन्न होती है। राजस्थान लोक सेवा आयोग के पेपर लीक और परिणामों में हेराफेरी को लेकर चल रही कानूनी कार्रवाई के कारण पिछले चार वर्षों में कई परीक्षाएं रद्द करनी पड़ी हैं। अन्य राज्य भी इसी किस्म की स्थिति से त्रस्त हैं।
आत्महत्या से होने वाली मौतों में दो तिहाई हिस्सा न्यूनतम आय वर्ग के लोगों का है। इसके अलावा, वर्ष 2022 में किसानों और खेतीहर मजदूरों ने 11,290 खुदकुशी की। अपने वजूद और सुख के लिए आधारभूत आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान हैं। नीति आयोग के अनुसार, 50 प्रतिशत भारतीयों की औसत मासिक क्रय शक्ति, क्रमशः ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में, 3,094 रुपये और 4,963 रुपये है। ग्रामीण और शहरी आबादी के निचले 20 प्रतिशत में आने वाले लोगों के पास खुद के वास्ते और परिवार को जिंदा रखने के लिए दैनिक खर्च क्षमता महज 70-100 रुपये है। इतने कम पैसे में भोजन, कपड़ा और मकान का इंतजाम कर लेना बेहद मुश्किल है।
आत्महत्या से होने वाली प्रत्येक मौत के बरक्स 200 से ज़्यादा लोग आत्महत्या करने की प्रवृत्ति और विचार पाले हुए हैं। चिंताजनक बात यह है कि वैश्विक औसत की तुलना में भारतीय महिलाओं की खुदकुशी दर दोगुनी है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, 2021 में हर दिन औसतन 86 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। यह संख्या असल से बहुत कम हो सकती है, क्योंकि अधिकांश पीड़ित महिलाएं लोकलाज आदि के डर से मामला दर्ज करवाने नहीं जातीं। महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा शारीरिक-मानसिक शोषण और उत्पीड़न का शिकार होता है, तिस पर व्यवस्था से सुनवाई की उम्मीद बहुत कम है।
खेती से मोहभंग और शहरी जीवन की चकाचौंध से ग्रस्त होकर, ग्रामीण युवा पलायन के मौके की तलाश में रहते हैं, जिससे वे भारी संख्या में बड़े शहरों का रुख करते हैं। शहरीकरण तनावों को बढ़ाता है- जीवनयापन की उच्च लागत, जिंदगी की तेज़ रफ्तार, सफलता प्राप्ति का दबाव और दुनिया में पैर जमाने का संघर्ष। परिवार और समुदाय की सुरक्षा छतरी सिर पर नहीं रहने से व्यक्ति में असुरक्षा बोध पैदा होता है। असफल होने वाले बहुत से लोग वहीं फंसकर रह जाते हैं– गांव वे लौटना नहीं चाहते, और शहर में कुछ पल्ले नहीं पड़ता।
दरअसल, हमारी शिक्षा प्रणाली में कुछ गंभीर गड़बड़ी है। आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 के अनुसार, केवल 51.25 प्रतिशत युवा ही रोजगार के लायक माने जाते हैं। यानी दो में से एक युवा अभी भी कॉलेज से सीधे कार्यबल की योग्यता लायक तैयार नहीं है। उच्च शिक्षा में दाखिला बढ़ा है, लेकिन अधिकांश छात्रों में आलोचनात्मक सोच, दृढ़ता आदि की कमी है। नशे की लत, हिंसा, अपराध, अवसाद और आत्महत्या अधिकतर बेरोजगारी के कारण पैदा हुई निराशा के परिणामवश है।
रोजाना 100 रुपये से कम पर गुजारा करने वाले संघर्षशील युवा के लिए सोशल मीडिया अमीरों की दुनिया में झांकने का मौका देता है, जिससे उनके अंदर भी शानदार कारें और महंगे फोन की ख्वाहिशें जगती हैं। आकांक्षाएं बढ़ रही हैं, लेकिन नौकरियां और अवसर कम हैं। हसरतों और हकीकत के बीच का अंतर संभालना मानव मस्तिष्क के लिए बहुत मुश्किल बन जाता है। ऐसे देश में जहां चोटी के एक प्रतिशत अमीरों के पास कुल संपत्ति का 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सा हो और निचले तबके के आधों के पास कुल संपत्ति का महज 3 फीसदी हिस्सा, वहां संसाधनों तक पहुंच में चौंका देने वाला अंतर स्पष्ट है।
भारत में आत्महत्या रूपी महामारी से निपटने हेतु उपाय खोजने की फौरी जरूरत है। इसका हल केवल सतही उपाय करने में निहित नहीं है। हमारी व्यवस्था में व्याप्त दोषों को ठीक करने के लिए बहुआयामी और वास्तविक प्रयास जरूरी हैं, इससे नीचे कुछ भी कीमती जानें नहीं बचा सकता। ऐसे देश में जहां बड़ी संख्या में लोग अभी भी देसी उपचारों से अपनी स्वास्थ्य समस्याओं का इलाज करने की कोशिश करते हैं, वहां मानसिक स्वास्थ्य समस्या से जूझ रहे व्यक्ति के लिए मनोचिकित्सक से परामर्श पाने की संभावना नगण्य है।
मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के प्रति जागरूकता का अभाव, अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं और ऐसी समस्याओं से जुड़ी सामाजिक कलंक की सोच एक भंवर बना देते हैं। इन मुद्दों का हल निकालना आत्महत्याएं रोकने में पहला कदम हो सकता है, इसके बाद आता है सबसे अधिक जोखिम वाले वर्ग की ओर ध्यान केंद्रित करना।
लेखिका मनोविज्ञानी हैं।