ज्योति मल्होत्रा
वास्तविक जीवन जैसी दिखने वाली वेब सीरीज के साथ समस्या यह है कि वह अपने साथ बहुत सी पुरानी यादें लेकर आती है। ‘आईसी 814 : कंधार हाईजैक’ नामक इस सीरीज के साथ मुश्किल यह हो रही है कि यह भारत को कमज़ोर दिखाती है : निशक्त, पस्त-अक्षम। नरेंद्र मोदी सरकार की मुश्किल यह है कि उन काले दिनों और रातों को दफनाना चाहती है – जो 1999 में क्रिसमस से पहली शाम और नए साल की पूर्व संध्या के बीच मुसीबत बनकर टूटे थे, जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को 300 से अधिक यात्रियों की जिंदगी के बदले में तीन आतंकवादियों को रिहा करना पड़ा था –इसकी जगह वह मधुर, गर्मजोशी भरा और खुशनुमा अहसास बनाए रखना चाहती है, जो एक मज़बूत देश का नेतृत्व मजबूत नेता के हाथ होने पर तारी रहता है। परंतु कठिनाई यह है कि इतिहास इस तरह के अहसासों का बंधक नहीं हो सकता। जो होता है, ठीक वही पेश करता है।
उस वक्त की कुछ झलकियां पेश हैं : अपहृत विमान में फंसे यात्रियों के परिवारों की मुश्किलें वाजपेयी सरकार की कमजोरी बन गई, जिनके सिर पर सरकार और अपहर्ताओं के बीच सौदा सिरे न चढ़ने पर हर किस्म के नुकसान का खतरा था। ब्रिटेन में पढ़ा और वहां के लहज़े में अंग्रेजी बोलने वाला उमर शेख – जो कि भारत सरकार द्वारा रिहा किए गए तीन आतंकवादियों में से एक था–उससे जब कंधार में भारतीय खुफिया अधिकारी आनंद अर्नी ने पूछा कि आज़ाद होने का क्या अर्थ है, तो उसने जवाब में ढेरों अपशब्द बके। पाकिस्तान की आईएसआई, जिसका पूरी तरह नियंत्रण था, उसने समझौता वार्ता के दौरान भी बुनियादी शर्तों को बदलवाया – 29 दिसंबर की शाम तक, सहमति केवल एक मसूद अज़हर को रिहा करने तक सीमित थी, लेकिन 30 दिसंबर की सुबह होते-होते अपहर्ता तीन आतंकवादियों को रिहा करने की मांग पर अड़ गए। यह वही था, जो होकर रहा।
कभी-कभी समस्या यह होती है कि लोग अतीत को वर्तमान के संदर्भ में देखने लगते हैं। उन्हें इस तथ्य से शर्मिंदगी महसूस होती है कि तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह भी उसी विमान से कंधार गए थे, जिसमें कुछ पीछे की सीटों पर रिहा किए जाने वाले तीनों आतंकवादी सवार थे, जो उन्हें सुनाने को जोर-जोर से अपशब्द बकते रहे। बहुत से लोगों का कहना है कि मंत्री को नहीं जाना चाहिए था, कई ने सवाल किया कि उन्होंने अपने पद की गरिमा क्यों गिराई? लेकिन ‘द ट्रिब्यून’ के अभिलेखागार में, उस वक्त में झांकने पर पता चलता है कि 1999 में भारत की स्थिति क्या थी। परमाणु परीक्षण हुए कोई एक साल गुजरा था और भारत अभी भी अंतर्राष्ट्रीय तौर पर अभिशप्त-सा था और आगामी गर्मी में अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन का दौरा होना तय था। पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध खत्म हुए बमुश्किल चंद महीने बीते थे। उस सप्ताह, जब अपहृत हुए विमान ने काठमांडू से अमृतसर होते हुए कंधार के लिए उड़ान भरी, जसवंत सिंह ने मदद के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य जगहों पर अपने कई समकक्षों को संपर्क करने की कोशिश की- लेकिन किसी ने उनका फोन नहीं उठाया। यह सप्ताह नए साल की खुशियां मनाने का था। आप जब जश्न मनाने में व्यस्त हों, ऐसे में तीसरी दुनिया के देश का कोई परेशान आदमी आपको उस समय फोन करे, तो आप केवल यही सोच सकते हैं कि अपनी समस्याओं से वह खुद क्यों नहीं निबट लेता? यही चीज़ है जिससे असली कमजोरी झलकती है। भले ही आप मदद पाने के लिए कितने भी अधीर हों, लेकिन कोई आपका फोन नहीं उठाना चाहता।
‘रॉ’ के तत्कालीन प्रमुख एएस दुलत के अनुसार, जसवंत सिंह उस सप्ताह दिल्ली में ‘अकेले पड़े एक आदमी’ थे। उनको लगा कि यदि कोई वरिष्ठ व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से लेन-देन प्रक्रिया की देखरेख करने साथ नहीं गया, तो कहीं अंतिम समय में ऐसा कुछ न हो जिससे यात्रियों की जान खतरे में पड़ जाए। सच तो यह है कि भारतीय वार्ताकार कंधार में कमजोर पड़े प्रतीत हुए क्योंकि उनके पास अपनी बात मनवाने की गुंजाइश बहुत कम या न के बराबर थी। विमान दुश्मन के इलाके में था। कठपुतलियों की डोर आईएसआई के हाथ में थी और सभी पत्ते भी उसके हाथ में थे।
नेटफ्लिक्स सीरीज़ उन सभी भारतीय दर्शकों को यह असहज सच्चाई स्वीकारने को मजबूर करती है कि हकीकत में हम वह राज्य नहीं हैं जोकि हम मानते रहे कि हम हैं। हम कमजोर थे, और शायद,अब भी हैं। वेब सीरीज़ ने हम सभी की इस रग को छूआ है कि जब रोशनी बुझ जाती है और हमारे समक्ष केवल हम ही होते हैं, तो क्या सच है और क्या नहीं, यह हमें पता होता है। हम जानते हैं कि हम उतने तगड़े नहीं हैं जितना खुद को मानते हैं।
कुछ लोग कह सकते हैं कि 25 साल का समय बहुत लंबा होता है और भारत काफी आगे निकल चुका है- वे पाकिस्तान के साथ वार्ता के संबंध में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपनाए गए सख्त रुख को गिनाते हैं। कुछ अन्य लोगों का इशारा 2016 में अभूतपूर्व सर्जिकल स्ट्राइक की तरफ होगा, जब भारतीय सशस्त्र बलों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पार की और पाकिस्तानी सेना द्वारा समर्थित आतंकवादियों के खिलाफ सफलतापूर्वक अभियान चलाये।
फिर भी, हम जानते हैं कि कमज़ोरी बनी हुई है, भीतर और बाहर। पिछले सप्ताह की शुरुआत में सिंगापुर में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चीनियों पर कसे तंजों के बावजूद हकीकत यह है कि लद्दाख में चीनियों ने हमारे सैनिकों को उस बड़े हिस्से में गश्त करने से वर्जित कर रखा है, जहां पर वे साल 2020 तक गश्त कर सकते थे। जम्मू संभाग में भी, जहां पर आतंकवादियों ने सशस्त्र बलों के 18 कर्मियों पर हमला कर शहीद कर दिया। सिंधुदुर्ग में, जहां शिवाजी की एक मूर्ति अनावरण के कुछ ही महीनों में ढह गई, क्योंकि ठेकेदार ने घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया था। पंजाब में, जहां पर नशीली दवाओं की समस्या कल्पना से कहीं ज़्यादा बदतर है। मणिपुर में, जहां पर मैतेई कट्टरपंथी अपने साथी बाशिंदों मणिपुरियों पर ड्रोनों से हमले कर रहे हैं।
यह स्वीकार करने में कहीं अधिक भलाई है कि हम चीनियों के सामने नहीं ठहर सकते। कम-से-कम इस स्वीकारोक्ति में ईमानदारी तो होगी। वैसे भी आर्थिक रूप से वह हम से पांच गुणा बड़ा है। इसलिए इस विषय का सामना करते हुए खुद से सवाल करना बेहतर होगा कि हम चीनियों के सामने खड़े होने लायक क्यों नहीं हैं?
चीन की आर्थिकी भारतीय अर्थव्यवस्था से पांच गुणा बड़ी क्यों है, जबकि माओ के चलाए ‘लॉन्ग मार्च’ की बीजिंग में परिणति लगभग उसी समय (1949 में) थी, जब भारत स्वतंत्र हुआ था? इसका उत्तर हमेशा यह नहीं हो सकता कि चीन एक तानाशाही है और भारत एक लोकतंत्र है– जिसमें अपनी पीठ थपथपाना शामिल है। इससे भी बदतर कुछ है। शिवाजी की मूर्ति बनाने वाले ठेकेदार को आखिरकार गिरफ्तार कर तो लिया गया है, लेकिन यह हमें मोदी के पुराने नारे की याद दिलाता है–‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ यानी न कभी खुद भ्रष्टाचार करूंगा, न ही करने दूंगा। निश्चित रूप से देश में सभी खराब कामों के लिए प्रधानमंत्री जिम्मेदार नहीं हैं, तब भी नहीं जब उनकी पार्टी उस महाराष्ट्र में गठबंधन में हो, जहां पर यह अपराध हुआ है।
शायद यह स्वीकार करना कहीं बेहतर है कि आप उतने मजबूत नहीं हैं जितना आप होने का दिखावा करते हैं। न लद्दाख में, न सिंधुदुर्ग में या फिर,न ही कंधार में।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।