अंशुमाली रस्तोगी
हिंदी दिवस आते ही, हिंदी-हितैषी सक्रिय हो जाते हैं। इतना अधिक सक्रिय हो जाते हैं कि सांस हिंदी में लेते-छोड़ते हैं। हिंदी की उन्नति की खातिर अंग्रेजी को, डकार लेते समय भी, दबाकर गरियाते हैं। भाषा के प्रति उनका प्रेम देख मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है।
खुद को कोसता हूं, आखिर मैं हिंदी के लिए कुछ खास क्यों नहीं कर पाया। जबकि बचपन से ही हिंदी में लिख-पढ़ और बोल रहा हूं। यू नो, हिंदी मेरी मां सरीखी है। दिन के चौबीस घंटे इस प्रयास में लगा रहता हूं, घर, बाहर, दफ्तर में सिर्फ हिंदी बोली जाए। लोगों को समझाता हूं। भाषा का महत्व बताता हूं। रोजगार की भाषा बनाने पर जोर देता हूं। अफसोस, कोई ध्यान ही नहीं देता। सब-सिर्री समझते हैं मुझे। बीवी अक्सर ताना मारती है, तुमने हिंदी लेखक होकर लाइफ में किया ही क्या है! हिंदी मुझे बदलती कम बिगड़ती अधिक नजर आती है।
जीवन में जब से एआई और चैटजीपीटी का चलन बढ़ा है, भाषा और बेचारी हो गई है। दिमाग पर जोर डालना लोगों ने बंद कर दिया है। सोचना छोड़ दिया है। रचनात्मकता पर तकनीक का लेबल चढ़ा दिया है। दो शब्द, खुद से, कोई लिखना नहीं चाहता। सब गूगल से बोलकर लिखवा ले रहे हैं। पलभर में एआई लेख लिखकर दे देता है।
हिंदी पूर्णतः बाजार की भाषा बना दी गई है। हिंदी की चिंता में अक्सर घुला जाता हूं। वेट लॉस हो गया है। डॉक्टर कहता है, इतना सोचा मत किया करो। फालतू की टेंशन मत लिया करो। लैंग्वेज को उसके हाल पर छोड़ दो। बताएं, ऐसे कैसे छोड़ दूं? जिस थाली में खा रहा हूं, उसी में छेद मुझसे न होगा। हिंदी-हितैषी तो बस देखने भर के हैं।
यू नो, हिंदी के वास्ते मुझे अभी बहुत कुछ करना है। पूरी लाइफ ही लगा देनी है। हार इतनी जल्दी न मानूंगा मैं। मेरे पेट और दिमाग में, हिंदी के हित के लिए, बहुत सारे प्लांस चलते-दौड़ते रहते हैं।
एक बात हमेशा ध्यान रखिए, भाषा बढ़ेगी हम भी तभी बढ़ेंगे। इसे इग्नोर न कीजिए। इसके बैटरमेंट में ही जग की भलाई है। देश का विकास एवं अर्थव्यवस्था भाषा पर ही जमी है। भाषा के महत्व को जानिए-समझिए। छींकने से लेकर भौंकने तक में भाषा का रोल है। हिंदी बहुत फ्रेंडली लैंग्वेज है। कभी इसके साथ गलबहियां करके देखिए।
मैं बोल रहा हूं फिर से। सो-कॉल्ड हिंदी हितैषियों से बचकर रहें। भाषा का वे सिर्फ दोहन कर रहे हैं।