तिरछी नज़र
अशोक गौतम
हिंदी पखवाड़ा हो और कविता पारिश्रमिक वाली न हो? ये तो कोई बात नहीं होती। इस पखवाड़े तो गरीब से गरीब सरकारी विभाग भी चंदा डालकर वैसे ही अपने यहां लंचीय, दक्षिणा वाली कवि गोष्ठी का आयोजन करवाते हैं।
मैं ट्रेनी हिंदी कवि हूं। कविता के एक खास घराने का शागिर्द हो सरकारी कवि गोष्ठियों में कैसे जाया जाता है, का हुनर सीख रहा हूं। मेरे उस्ताद मुझे कविता लिखने के गुर सिखाने के बदले कवि गोष्ठियों में अपना नाम लिखवाने, घुसवाने के गुर सिखा रहे हैं। उनका मानना है कि उच्चकोटि के कवि को कविता करना आए या न आए, पर उसे सरकारी कवि गोष्ठियों की लिस्ट में अपना नाम शामिल करवाना हर हाल में आना चाहिए। उच्चकोटि का कवि वह नहीं जो उच्चकोटि की कविता लिखे। उच्चकोटि का कवि वह जो हर सरकारी कवि गोष्ठी में अपना नाम सबसे पहले शामिल करवा सके।
आखिरकार मैं अपने दम पर जैसे कैसे हिंदी पखवाड़े की सरकारी कवि गोष्ठी में अपना नाम शामिल करवाने में सफल हुआ तो मेरे कविता उस्ताद ने मेरी पीठ थपथपाई। उन्हें लगा कि उन्होंने मुझे अपने घराने में दीक्षित कर गलती नहीं की है। हिंदी का गुणगान करने सरकारी कवि गोष्ठी में पहुंचा तो वहां बिन बुलाये कवियों की आंखों में कविता के बदले सरकारी विभाग द्वारा करवाई जाने वाली कवि गोष्ठी की देरी को लेकर दहकते अंगारे देखे तो मेरी रूह कांप उठी।
‘यार! दस का टाइम दिया था, पर बारह बजे भी कुछ नहीं। आखिर हम कवियों को ये लोग इतने हल्के में लेते क्यों हैं? विभाग के बारे में सही-सही कहना मतलब अगली कवि गोष्ठी की लिस्ट से अपना नाम खारिज करवाना। सफल कवि वही जो कवियों की लिस्ट से अपना नाम किसी भी हाल में खारिज न होने दे। इसलिए दूसरा कवि उस दरवाजे की तरफ परेशानी की मुद्रा में निहारता रहा जिस ओर से हिंदी दिवस के आयोजक पदार्पण करने वाले थे। उसे पता है कि कविता विभाग की दीवारों के भी कान होते हैं। वे आएं तो वह सबसे पहले उनके चरण छू अगली कवि गोष्ठी में अपना नाम पक्का करवाए।
आखिर एक बजे कवि गोष्ठी शुरू हुई! हिंदी दिवस! श्रोता शून्य, बस कवि ही कवि! हर कवि ने एक-दूसरे को पछाड़ते हिंदी के हाल पर यों रोना रोया ज्यों वह हिंदी के हाल पर नहीं, अपने हाल पर रो रहा हो। पारिश्रमिक का फार्म इस उम्मीद के साथ भरा कि इस कवि गोष्ठी का पारिश्रमिक तो आ ही जाएगा। पर पिछले वाली कवि गोष्ठी के पारिश्रमिक के बारे में किसी ने किसी से कुछ नहीं पूछा। पूछता तो अगली बार पारिश्रमिक का फार्म भरने का मौका हाथों से छिन नहीं जाता क्या?