डॉ. राजेंद्र गौतम
लो मांगने को कवच-कुण्डल का तुम्हीं से वर,
उगने लगे हैं मंच से फिर भाषणों के स्वर।
फिर जा रही रोपी यहां पर फसल नारों की,
वे ही कंटीली झाड़ियां देगा मगर ऊसर।
कैसे उड़ेंगे पंख, कतरे रहनुमाओं ने,
लाचार हो बैठे, बंधे हैं पांव में पत्थर।
पुल ज्योति के हैं, तोड़ती लहरें अंधेरों की,
देगा नहीं कोई तुम्हें सूरज नया लाकर।
दरके हुए इन आईनों में अक्स उनके हैं,
पाकीज़गी का जो ढिंढोरा पीटते अक्सर।
नए युग का व्याकरण
किस कदर
सहमा हुआ है
इस हवा का आचरण!
शब्द तक ही कैद
हर सन्दर्भ की शालीनता
पर अर्थ आवारा हुए
हर गली के मोड़ पर।
उच्छृंखला बजतीं धुनें,
सब गीत विष-धारा हुए,
रच रहे अब वात्स्यायन
नए युग का व्याकरण।
कोपलों-सी, फूल-सी यह
वक्त की नाजुक हथेली,
दंश बिच्छू के सहे
किस अंधेरे में दुबक,
भयभीत हो बैठी हया।
सुन ढीठता के कहकहे
और नंगे दिखते हैं
देह के ये आवरण।
प्रेम की कोपलें
लोग तो प्रत्येक दिन
ढूंढ़ने में लगे हैं
नई-नई खोजें,
नए-नए अनुसंधान।
परन्तु मैं तो एक ऐसे
पेड़ को पैदा करने
की फिराक में हूं।
जिस पर उगते हों केवल
मुहब्बत के फूल,
फूटती हों जिस से
केवल प्रेम की
कोपलें।
मुहब्बत के पेड़
की घनी छाया के
नीचे बैठ भूल जाएं
दुनिया वाले
सारे वैर-विरोध,
मिट जाएं
देशों के क्रोध।
सुदर्शन गासो