उमेश चतुर्वेदी
कार्तिक महीने की पूर्णिमा के आसपास बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में दो बड़े मेले लगते हैं। इनमें बिहार के सोनपुर के हरिहरक्षेत्र मेले को तो राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल चुकी है, लेकिन उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के ददरी मेले को वह पहचान नहीं मिल पाई है। हालांकि ऐतिहासिक दृष्टि से ददरी मेले का मंच काफी महत्वपूर्ण रहा है। गुलाम भारत की बदहाली को लेकर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने एक बेहद मार्मिक निबंध ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?’ लिखा था, जिसे उन्होंने पहली बार बलिया के इसी ददरी मेले के मंच पर नवंबर 1884 में प्रस्तुत किया था। यह निबंध हिंदी साहित्य और वैचारिकी के इतिहास में ‘बलिया व्याख्यान’ के नाम से प्रसिद्ध है।
उत्तर भारत में भोजपुरी भाषी क्षेत्र की संस्कृति का पहचान रहा यह मेला हर साल कार्तिक महीने में सदियों से लग रहा है। सोनपुर के मेले को जहां राज्य की सांस्कृतिक पहचान से जोड़ दिया है, वहीं बलिया का ददरी मेला ऐसी किसी पहचान का मोहताज है।
ऐतिहासिक महत्व
ददरी मेले का ऐतिहासिक महत्व इस बात से भी स्पष्ट होता है कि चीनी यात्री फाह्यान ने अपने यात्रा वृत्तांत में इस मेले का जिक्र किया है। इससे यह भी साफ होता है कि मौर्य काल में ददरी मेला भोजपुरी अंचल में अपनी खास पहचान रखता था।
भृगुक्षेत्र और ददरी मेला
कहा जाता है कि त्रिदेवों—ब्रह्मा, विष्णु और महादेव में कौन सर्वश्रेष्ठ है, इसकी जिम्मेदारी ऋषियों ने महर्षि भृगु को सौंपी थी। उन्होंने इसी परीक्षा के दौरान शेषनाग की शय्या पर सोए विष्णु की छाती में जोरदार लात मारी थी। बाकी दो देवों की तरह विष्णु भृगु पर नाराज नहीं हुए, उल्टे उनके पैरों को सहलाने लगे थे कि कहीं उनकी कठोर छाती से भृगु जी को चोट तो नहीं लगी। इसके बाद नैमिषारण्य लौटे भृगुजी ने विष्णु को तीनों देवों में श्रेष्ठ घोषित किया। लेकिन वहां मौजूद ऋषियों ने उन्हें विष्णु की छाती में लात मारने का दोषी पाया और इस पाप के चलते भृगु जी को कोढ़ हो गया। इस पाप के प्रायश्चित के तौर पर उन्हें गंगा किनारे तपस्या करने का सुझाव दिया गया।
पौराणिक कथा के मुताबिक ऋषियों ने उन्हें एक सूखा बांस दिया और भृगु जी से कहा कि इस बांस को लेकर वे गंगा किनारे पूरब की ओर बढ़ें, जहां बांस में कोंपलें फूट पड़ें, वही जगह पवित्र होगी। भृगु जी सूखे बांस को लेकर गंगा किनारे पूरब की ओर चल पड़े और बलिया के पास पहुंचते ही वह बांस हरा हो गया। इसके बाद भृगु जी ने बलिया में गंगा किनारे तपस्या की और विष्णु की छाती में लात मारने से लगे ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति पाई। इसीलिए बलिया को ‘भृगुक्षेत्र’ भी कहा जाता है।
सांस्कृतिक परंपरा
बलिया में भृगुजी के एक शिष्य थे, जिनका नाम था दर्दर मुनि। बलिया शहर में भृगु जी का मंदिर स्थापित है, जहां उनके शिष्य दर्दर मुनि का भी मंदिर है। किंवदंतियों के अनुसार, दर्दर मुनि ने अपने गुरु की याद में हर साल कार्तिक पूर्णिमा को यहां मेला लगाना शुरू किया। पवित्रता का गवाह और प्रतीक बने यह मेला बाद में जन-जन में लोकप्रिय हो गया। दक्षिणायन होते सूर्य के दौर में यहां गंगा स्नान को खास पुण्य का भागी माना जाता है, और यही वजह है कि यह मेला पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और एक हद तक नेपाल के लोगों में भी काफी लोकप्रिय रहा है।
पशुओं की खरीद-बिक्री
एक वक्त था जब इस मेले की उत्तर भारत में खास पहचान थी। हाथी छोड़कर यहां हर तरह के पशुओं की खरीद-बिक्री होती रही है। इस मेले की लोकप्रियता का आलम यह था कि यहां पंजाब और हरियाणा के व्यापारी भी हर साल आते थे। अब भले ही पंजाब के व्यापारी यहां कम आ रहे हों, लेकिन सुदूर नेपाल की तराई से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कोने-कोने से अब भी पशुओं के खरीददार यहां आते हैं।
मेला और पर्यटन
उदारीकरण के दौर में पारंपरिक मेलों को दो तरह से फायदा हुआ है। एक तरफ सरकारों ने अपने इलाके के मेलों को सांस्कृतिक और जातीय पुनर्पहचान देने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं, वहीं बाजार ने इन मेलों को आधुनिक बनाने में योगदान दिया है। बेरोजगारी से बचाव के लिए राज्य सरकारें अपने इलाके के सांस्कृतिक महत्व के स्थलों और मेलों को नई पहचान देने में जुटी हैं। दिलचस्प बात यह है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश का बौद्ध सर्किट यहां से काफी करीब है। भगवान बुद्ध ने जहां पहला उपदेश दिया था, उस सारनाथ की दूरी महज 120 किलोमीटर है, जबकि निर्वाण स्थल कुशीनगर भी करीब 100 किलोमीटर दूर है।
पर्यटन मानचित्र
अगर ददरी मेला को बौद्ध सर्किट के साथ प्रचारित करके पर्यटन के मानचित्र पर जोड़ा जाए, तो यह न सिर्फ सांस्कृतिक दृष्टि से, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी इस इलाके को काफी फायदा पहुंचा सकता है। इस मेले की सांस्कृतिक अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके सांस्कृतिक मंच पर भारतेंदु हरिश्चंद्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी और परशुराम चतुर्वेदी तक ने सामयिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर अपने विचार रखे हैं। वह मंच आज भी सक्रिय है। मेले में अब लोकप्रिय भोजपुरी फिल्मों के गायक और कलाकारों को बुलाया जाने लगा है, और हर साल चेतक दौड़ के नाम पर घुड़दौड़ प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के एकदम पूर्वी छोर पर स्थित बलिया की धरती की पहचान मंगल पांडे और चित्तू पांडे जैसे महान शहीदों से भी रही है। मंगल पांडे ने 1857 की क्रांति का शुभारंभ किया और पहले क्रांतिकारी शहीद बने। जयप्रकाश नारायण और चंद्रशेखर जैसे नेताओं की कर्मभूमि भी यहीं रही। ददरी मेला एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर है, जिसे उचित प्रचार-प्रसार और पर्यटन के दृष्टिकोण से समुचित ध्यान दिया जा सकता है। यदि इसे बौद्ध सर्किट से जोड़ा जाए तो यह न केवल स्थानीय लोगों के लिए, बल्कि पूरे क्षेत्र के विकास के लिए एक बड़ी आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान बन सकता है।