कभी शांतिप्रिय माने जाने वाले मणिपुर में बीते डेढ़ साल से जारी हिंसा एक गंभीर चुनौती बनती जा रही है। राज्य में नए सिरे से शुरू हुई अमानवीय हिंसा व आगजनी की घटनाएं स्थिति की गंभीरता को दर्शाती हैं। इस हिंसाग्रस्त पूर्वोत्तर के हालात से निपटने में केंद्र और राज्य सरकार बेबस और उदासीन नजर आते हैं। हाल के दिनों में पनपी गंभीर हिंसा की घटनाएं राज्य नेतृत्व की क्षमताओं पर सवाल उठाती हैं। केंद्र व राज्य में एक ही दल की सरकार होने के बावजूद हिंसा न थमने को लेकर विपक्ष लगातार सवाल उठाता रहा है। निश्चित रूप से यह गंभीर स्थिति ही है कि दो सौ से अधिक लोगों के मारे जाने तथा हजारों लोगों के विस्थापन के बावजूद संकट का समाधान होता नजर नहीं आ रहा है। यही वजह है कि इन घटनाओं के बाद जनाक्रोश सड़कों पर नजर आ रहा है। राज्य में कई विधायकों के घरों पर हमले व आगजनी की घटनाएं हुई हैं। यहां तक कि साठ सदस्यीय विधानसभा में सात सदस्यों वाली नेशनल पीपुल्स पार्टी यानी एनपीपी ने राज्य सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। पार्टी का आरोप है कि मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार संकट का समाधान निकालने तथा सामान्य स्थिति बहाल करने में पूरी तरह विफल रही है। हालांकि एनपीपी के समर्थन वापस लेने से सरकार को कोई खतरा नहीं हैं क्योंकि सरकार के पास विधानसभा में पर्याप्त बहुमत है, लेकिन घटनाक्रम स्थिति की गंभीरता को जरूर दर्शाता है। साथ ही घटनाक्रम सत्तारूढ़ भाजपा को चेताता है कि वह अब हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकती। हालांकि, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने राज्य में दो दिन के दौरान सुरक्षा स्थिति की समीक्षा जरूर की है। वहीं मुख्यमंत्री ने भी सत्तारूढ़ गठबंधन के मंत्रियों और अन्य विधायकों से बैठक करके उन्हें समझाने की कोशिश की है।
विपक्ष मणिपुर के बेहद चिंताजनक हालात होने के बावजूद प्रधानमंत्री की अपेक्षित सक्रियता न होने का आरोप संसद से सड़क तक लगाता रहा है। वे आरोप लगाते रहे हैं कि पूरी दुनिया की खैर-खबर लेने वाले प्रधानमंत्री मणिपुर नहीं जाते। साथ ही उनका आरोप है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय लगातार बिगड़ती स्थिति को नियंत्रित करने में विफल रहा है। सवाल यह भी कि सुरक्षा बलों की निरंतर बढ़ती उपस्थिति के बावजूद स्थितियां नियंत्रण में क्यों नहीं आ रही हैं। यह भी कि लगातार हिंसा व चौपट होती कानून व्यवस्था के बाद भी कैसे पार्टी मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह पर भरोसा जता रही है। उनकी विफलताओं के बावजूद उनको हटाने की मांग को क्यों नजरअंदाज किया जा रहा है। वह भी तब जबकि आक्रोशित जनता पार्टी विधायकों के घरों को आगजनी से निशाना बना रही है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पूर्वोत्तर का यह राज्य संवेदनशील अंतर्राष्ट्रीय सीमा से जुड़ा है। मणिपुर की हिंसा बीते साल मई में मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग के बाद शुरू हुई थी। जिसका राज्य के कुकी व नागा समुदाय ने हिंसक विरोध किया था। लेकिन यह गंभीर बात है कि पिछले डेढ़ वर्ष में राज्य के भीतर अवैध प्रवास, जमीन, जंगल, हथियारों की तस्करी व नशे के कारोबार में खासी तेजी आयी है। यहां तक कि म्यांमार से अवैध घुसपैठ की घटनाएं भी सामने आई हैं। निस्संदेह, इस संकट के तमाम आयाम हैं, जिसकी संवेदनशीलता को देखते हुए इस मसले के शीघ्र समाधान की जरूरत महसूस की जा रही है। संकट इस बात का भी है कि यह संघर्ष पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी फैल सकता है। हाल के वर्षों में म्यांमार व बांग्लादेश में बदले राजनीतिक घटनाक्रम के चलते पृथकतावादियों को शह मिल सकती है, जो कालांतर भारत में कानून व्यवस्था के लिये संकट पैदा कर सकते हैं। यदि हम पूर्वोत्तर के इतिहास पर नजर डालें तो पाते हैं कि पूर्वोत्तर में सामुदायिक संरचना बेहद जटिल और संवेदनशील रही है। इससे हिंसा का सिलसिला लंबा खिंच सकता है। ऐसे में केंद्र व राज्य सरकार की कोशिश हो कि संकट का राजनीतिक व सामाजिक समाधान निकाला जाए ताकि समुदायों में सामंजस्य से हिंसा को टाला जा सके।