सुच्चा सिंह गिल
वर्ष 1990 के दशक के मध्य से भारत से विभिन्न देशों में जाकर काम करने वालों का प्रवासन बढ़ता चला गया, जिससे विदेशों में आप्रवासी भारतीयों की संख्या दुनियाभर में सबसे बड़ी बन गई। परिणामस्वरूप, भारत को मिलने वाली विदेशी मुद्रा में भी वृद्धि हुई और सर्वाधिक विदेशी धन प्राप्तकर्ताओं में से एक है। कनाडा की आव्रजन नीतियों में हुए हालिया बदलाव और संभवतः अमेरिका भी करेगा, का असर विशेष रूप से देश के उन राज्यों पर पड़ने की संभावना है, जहां से बड़ी संख्या में लोग वहां गए हुए हैं। इन सूबों में केरल, गुजरात, पंजाब और आंध्र प्रदेश शामिल हैं।
भारत के उल्लेखनीय आर्थिक प्रदर्शन में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (1991) की भूमिका का जिक्र कई अर्थशास्त्रियों और वैश्विक संस्थानों द्वारा किया गया है। इस प्रयास में, आर्थिक नीति में परिवर्तनों के साथ जी-7 राष्ट्रों के साथ भारत के संबंधों का पुनर्गठन भी हुआ, जी-20 में भारत की भागीदारी से इसमें और विस्तार हुआ। इसने भारत को भारी मात्रा में विदेशी पूंजी निवेश आकर्षित करने के अलावा घरेलू बचत की उच्च दर एवं निवेश पाने में मदद की। पिछले साल दिल्ली में जी-20 की बैठक में चीन की ‘बेल्ट एंड रोड पहल’ परियोजना के विकल्प के रूप में मध्य-पूर्व देशों से होकर यूरोप तक रेल संपर्क बनाने का निर्णय लिया गया।
बड़ी संख्या में शिक्षित भारतीय कुशल और अर्ध-कुशल श्रमिकों को भी विदेशों में नौकरियां मिली हुई हैं। इसके चलते विदेशों में आप्रवासी भारतीयों क तादाद बढ़ती चली गयी, हाल के वर्षों में, दुनियाभर के आप्रवासी कामगारों द्वारा अपने घर भेजे जाने वाले पैसे के मामले में भारतीयों का योगदान सबसे ऊपर और बड़ा है। यह आर्थिक नीति और देश के अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार में संतुलन के कारण हुआ है।
भारतीय आप्रवासियों की संख्या वर्ष 2000 में 79 लाख से बढ़कर 2023 में 1.89 करोड़ हो गई। वे अपने घर जो कमाई भेजते हैं, उससे परिवार की क्रय शक्ति बढ़ती है, साथ ही आवास और कारोबार में निवेश भी। भारत की विदेशी मुद्रा आय में उनका योगदान उल्लेखनीय है। भारतीय आप्रवासियों की सबसे बड़ी गिनती अमेरिका में (44.60 लाख) है। अमेरिका के चार करीबी सहयोगी मुल्कों में यह गिनती- ऑस्ट्रेलिया (4.96 लाख), कनाडा (16.89 लाख), न्यूजीलैंड (2.40 लाख) और यूके (17.64 लाख) है जिससे इन सबमें कुल संख्या 86.49 लाख बनती है। यदि यूरोप गए आप्रवासियों को भी इसमें जोड़ दिया जाए तो यह गिनती 1.89 करोड़ हो जाती है। मध्य पूर्व के मुल्क एक और क्षेत्र हैं, जहां भारतीयों की उपस्थिति बहुत ज्यादा है। यूएई, सऊदी अरब, ओमान, कुवैत और कतर में 85.77 लाख भारतीय आप्रवासी हैं।
इन दोनों क्षेत्रों की आव्रजन नीति में एक बड़ा अंतर है। जहां पश्चिमी देश आप्रवासियों को स्थायी रूप से बसने और उन्हें नागरिकता प्रदान करने की अनुमति देते हैं वहीं खाड़ी देशों में यह इजाज़त नहीं है। लिहाजा आव्रजन के लिए पश्चिमी मुल्क पसंदीदा गंतव्य बन गए। 2023 में भारत को प्राप्त विदेशी मुद्रा प्रेषण में अमेरिका और उसके चार करीबी सहयोगियों का हिस्सा 35 प्रतिशत से अधिक रहा। प्राप्त कुल 120 बिलियन डॉलर में अकेले अमेरिका का योगदान 23 प्रतिशत रहा, उसके बाद यूके (6.8 प्रतिशत), कनाडा (2.4 प्रतिशत), ऑस्ट्रेलिया (1.9 प्रतिशत) और न्यूजीलैंड (एक प्रतिशत से भी कम) का हिस्सा रहा। यूरोप समेत पश्चिमी राष्ट्रों, का संयुक्त योगदान खाड़ी देशों से कुछ अधिक है, जिनकी कुल विदेशी मुद्रा आमद में हिस्सेदारी 42 प्रतिशत है। इस प्रकार इन दोनों क्षेत्रों का संयुक्त योगदान 85 प्रतिशत से अधिक है। जिससे भारत को अपने भारी विदेशी व्यापार घाटे को पूरा करने में बड़े पैमाने पर मदद मिलती है। धन प्रेषण के राज्यवार आंकड़ों से पता चलता है कि सूची में केरल सबसे ऊपर है, उसके बाद महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु आते हैं।
विभिन्न देशों में बड़ी संख्या में पंजाबी आप्रवासियों के बावजूद, पंजाब अभी भी इन सूबों से पीछे है। यह इसलिए कि अधिकांश पंजाबी आप्रवासी यूके, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अन्य देशों में केंद्रित हैं, जहां वे स्थायी रूप से बस गए हैं, लिहाजा समय के साथ उनके द्वारा घर भेजे जाने वाले धन का प्रवाह कम होता चला गया। चूंकि केरल के आप्रवासी ज्यादातर यूएई और अन्य अरब देशों में रहते हैं, जहां वे स्थायी रूप से नहीं बस सकते। जिसकी वजह से उनके द्वारा भेजा पैसा सबसे अधिक है।
अन्य देशों को आव्रजन भारत के शिक्षित और कुशल कर्मचारियों के बीच बेरोजगारी का बोझ कम करने में सहायक रहा है। भारत के आप्रवासी न केवल विदेशी मुद्रा आय का बहुत बड़ा स्रोत हैं, बल्कि विदेशों में भारतीय संस्कृति और सद्भावना को भी बढ़ावा देते हैं। वे विदेशों में परंपरागत वस्तुओं की मांग भी पैदा करते हैं।
साल 1991 में उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद, भारत अपनी घरेलू जरूरतों, अतिरिक्त उत्पाद एवं सेवाओं को विदेशों में निर्यात करने के अलावा अपने प्रशिक्षित कर्मचारियों के लिए रोजगार के मामले में भी विदेशी अर्थव्यवस्थाओं पर ज्यादा निर्भर होता चला गया। यही कारण है कि पश्चिमी देशों की आव्रजन नीतियों में बदलाव इसे गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। कनाडा की आव्रजन नीति में हाल ही में कई बदलाव हुए हैं जैसे मल्टीपल-एंट्री विजिटर वीजा खत्म करना। एक अन्य महत्वपूर्ण बदलाव है, स्थायी निवास यानी पीआर प्रावधान को लेकर। इससे पहले, जिन छात्रों ने अपनी डिग्री या डिप्लोमा पूरा कर लिया था, उन्हें अस्थायी वर्क परमिट मिल जाता था और कुछ समय बाद उन्हें पीआर यानी स्थाई निवास अनुमति मिल जाती थी। लेकिन इस प्रावधान के नियमों को अब कड़ा कर दिया गया है और बहुत सीमित संख्या में ही छात्रों को पीआर मिल पाएगा, बशर्ते उनके पास वह कौशल हों, जिनको लेकर कनाडा को अपने नागरिकों में भारी कमी का सामना करना पड़ रहा हो।
पिछले साल, कनाडा सरकार ने शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए एक शर्त के रूप में, विदेशी छात्रों की गुजारा-खर्च की अग्रिम जमा राशि को दोगुना कर दिया था। पीआर नियमों और वीजा नीति में बदलावों ने भारतीयों सहित बड़ी संख्या में विदेशी छात्रों के लिए अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद कनाडा छोड़ने के लिए मजबूर होने का खतरा पैदा कर दिया है।
पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के छात्रों और श्रमिकों के लिए कनाडा एक पसंदीदा गंतव्य रहा है। साल 2023 में कनाडा में भारतीय छात्रों की संख्या 4.27 लाख थी, जिनमें से 1.47 लाख (41 प्रतिशत) पंजाब से थे। इसके अलावा, बड़ी संख्या में युवा पंजाबियों के पास अस्थायी निवास परमिट हैं जो समाप्त होने के कगार पर हैं। इनमें 1.5 लाख से अधिक पर निर्वासन की तलवार लटक गई है। इनमें कई युवा अपनी समस्याएं उजागर करने को कनाडा भर में प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन उनकी परेशानियों पर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा।
हाल के अमेरिकी चुनाव ने डोनाल्ड ट्रम्प को सत्ता में वापस ला दिया है। वे ‘अमेरिका फर्स्ट’ के लिए प्रतिबद्ध हैं और आव्रजन नीतियों को कड़ा कर सकते हैं। इसी तरह के बदलाव के संकेत अन्य पश्चिमी देशों में भी दिख रहे हैं। जाहिर है, इस सबका प्रवासी भारतीयों और भारत भेजे जाने वाले धन पर गंभीर असर होगा।
कनाडा में भारतीय छात्रों के भविष्य की रक्षा करने की तत्काल आवश्यकता है जो स्थायी तौर पर बसने की आकांक्षाओं के साथ वहां गए हैं। अगर बड़ी तादाद में उन्हें पंजाब लौटने के लिए मजबूर किया गया तो यह बड़ी समस्या होगी। पंजाब सरकार को व्यावहारिक समाधान के लिए तत्काल आधार पर इस मामले को केंद्र के समक्ष उठाने की जरूरत है।
लेखक चंडीगढ़ स्थित संस्थान ‘क्रिड’ के पूर्व महानिदेशक हैं।