भूपेन्द्र भारतीय
आखिर सिद्धांत भी कोई चीज होती है? ऐसा कहते हुए उन्होंने अपने सातवें दशक का अमर विचार उछाला। हां, वे सात दशक से राजनीति में हैं और सिद्धांतों की बात कर रहे हैं। उनके कार्यकर्ता तो इसके अभ्यस्त हैं ही, लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वियों को यह बात हजम नहीं हो पा रही है। आखिर आजकल सिद्धांतों की बात किसे पसंद आती है? इस सोशल मीडिया युग में जो सिद्धांत की बात करेगा, वह छला ही जाएगा। घर बैठा दिया जाएगा।
उनके साथ भी यही हुआ। वे आधुनिक राजनीति के सामने बार-बार “यह सिद्धांत की बात है” की रट लगा रहे थे। फिर क्या था, उन्हें मार्गदर्शक मंडल में बैठा दिया गया। अब वे घर बैठे अपनी नकली दाढ़ से हर बाइट पर सिद्धांतों की बात उगलते रहते हैं। अपने ही दल के सामने राजनीतिक शुचिता की बातें करते हैं। वे अपने राजनीतिक यौवन में मुख्यमंत्री, मंत्री, अध्यक्ष, विधायक, सांसद आदि के पदों से सुशोभित रहे हैं लेकिन अब वे अपने आप को सिर्फ़ जनसेवक कहलाना पसंद करते हैं। वे अब सिर्फ़ सिद्धांत की राजनीति के पक्षधर हैं।
ऐसा नहीं है कि वे अब ही सिद्धांत की बातें करने लगे हैं। वे तो राजनीति में शुरू से सिद्धांतों के पक्षधर रहे हैं लेकिन क्या करें, अपने दल को भी तो चलाना होता है। आखिर दल के कार्यकर्ता बगैर चंदे के कैसे जीवित रहें ? वे तो शुरू से किसी भी तरह के चंदा लेने के पक्षधर नहीं रहे। लेकिन जनसेवा के लिए आखिर पार्टी कार्यालय की आवश्यकता तो होती ही है। उसके लिए चंदा तो लगता ही है। “मूल्यों व सिद्धांतों से चुनाव नहीं जीत सकते हैं, राजनीति जरूर कर सकते हैं।”
उन्होंने जितने भी चुनाव लड़े सिर्फ़ जनसेवा के लिए ही लड़े। वे कभी भी मंत्री-मुख्यमंत्री बनना नहीं चाहते थे। लेकिन पार्टी हाईकमान के निर्देश पर उन्होंने इन दायित्वों का निर्वाह करना स्वीकार किया। उन्हें राजनीतिक सत्ता का मोह तो शुरू से था ही नहीं !
क्या करें अपने क्षेत्र की जनता की भावनाओं व कार्यकर्ताओं के आग्रह पर वे चुनाव लड़ते थे , लेकिन अब उन्होंने वह सब बंद कर दिया है। अब वे पूर्णतः सिद्धांतों की ही राजनीति कर रहे हैं। उनका बड़ा मन है कि वे राजनीति में नये प्रतिमान व सिद्धांतों को गढ़ें। वे आजकल की दूषित राजनीति को स्वच्छ करना चाहते हैं। उनके अनुसार अब राजनीति बहुत गंदी हो गई है। वे एक बड़ा स्वच्छता अभियान चलाना चाहते हैं।
ऐसे में वे एक बार फिर जनसेवक की भूमिका में राजनीतिक सिद्धांतों की लड़ाई लड़ना चाहते हैं। यहां चुनावों के नजदीक आने व फिर से चुनाव लड़ने से सिद्धांत की बात का कोई लेना देना नहीं है। लेकिन राजनीतिक शुचिता के लिए वे एक बार फिर अपने क्षेत्र की भोली-भाली जनता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए जनसेवक के तौर पर जनता के बीच जाना चाहते हैं। जिससे उनके क्षेत्र की जनता का कल्याण हो। यह लड़ाई राजनीतिक मूल्यों की रक्षा के लिए है।