डॉ. मोनिका शर्मा
उदासी किसी को कब घेर लेती है समझ ही नहीं आता? यह जानना भी मुश्किल होता है कि निराशा के भाव कैसे किसी के मन में डेरा जमा लेते हैं? न ही इस बात की खबर लग पाती है कि भावनात्मक बिखराव अचानक क्यों दस्तक देता है? या किस वजह से दिलो-दिमाग परेशानियों के भंवर में डूबने लगता है? ऐसे में उदासी से घिरते किसी के मन की मदद का सही रास्ता जानना भी आवश्यक है।
परवाह के प्रयास
कोई अपना हो या पराया, उदासी और उलझनों में फंस जाने के बाद उसे निकालने के प्रयास परिचित-अपरिचित सभी करते हैं। हर प्रयास मानवीय भाव लिए होता है। देखा जाए तो ऐसी कोशिशें जरूरी भी हैं। विचारणीय है तो यह कि अधिकतर लोगों को उदासी के दौर में किसी इंसान की सहायता करने के सही तरीके का पता ही नहीं होता। लाजिमी भी है क्योंकि मन का भी अपना विज्ञान होता है, और हर कोई इसका विशेषज्ञ नहीं हो सकता। ऐसे में एक हालिया शोध के नतीजे गौर करने लायक हैं। इस रिसर्च में सामने आया कि हर इंसान के मन को ठीक करने का तरीका इस बात निर्भर है कि मन की खिन्नता का कारण क्या है? इस शोध का सबसे ज्यादा ध्यान देने वाला पहलू यह है कि उदासी का कारण पता न होने पर भी ज्यादातर मामलों में उस इंसान के साथ में बैठकर बात करना बहुत मददगार साबित होता है। उसके आसपास के लोगों का शांत हो जाने या मन बहलाने के उपाय करने से ज्यादा जरूरी संवाद का सेतु बनाना है। सुखद यह कि मन का मौसम बदलने की यह कोशिश तो हर कोई सहजता से कर सकता है। बातचीत के बहाने किसी को सहज फील करवाने के लिए विशेषज्ञता नहीं चाहिए। बावजूद इसके शब्दों से किसी मन को साधने वाली परवाह का यह प्रयास कम ही देखने को मिलता है।
संवाद और साथ का भाव
आमतौर पर किसी अपने के उदास होने पर शॉपिंग या लंच-डिनर पर बाहर ले जाने , गुलदस्ता या उपहार भिजवाने या फिर हॉलिडे ट्रिप प्लान करने जैसे कदम बहुत उत्साहित होकर उठाए जाते हैं। मन बहलाने के इन उपायों में बहुत कुछ शामिल होता है, सिवा आपसी बातचीत के। जबकि सहज संवाद की राह पकड़े बिना किसी का भी मन उलझनों से बाहर नहीं आ सकता है। कई बार किसी के मन के गुबार को सुन लेना ही काफी होता है। अपनों की मौजूदगी ही किसी को बेहतर महसूस करवाने के लिए काफी होती है। यूं उलझन के दौर में किसी को सुनना यह विश्वास जगाता है कि आप उस इंसान की परवाह करते हैं। उसके मनोभावों को समझते हैं। परेशानी के दौर में उसके साथ हैं। इसीलिए किसी भी बहाने से बातचीत का सिलसिला शुरू करना आवश्यक है। ऐसे समय सुखद स्मृतियों की बात करना चेहरे पर मुस्कुराहट ला सकता है। साथ ही इमोशनल टूटन के दौर में उपलब्धियों का जिक्र या व्यक्तित्व के अच्छे पक्ष की सराहना भी मनोबल बढ़ा सकती है। ऐसी बातों से न केवल दिल बहलता है बल्कि मन का बोझ भी कम होता है। भविष्य की उम्मीदों को बल मिलता है। जिससे उदासी के बादल भी छंटते हैं।
अकेला न छोड़ें
अकसर बिगड़े मूड और बिखरी मनःस्थिति में लोगों को अकेला छोड़ दिए जाने की राह चुनी जाती है। ‘कुछ समय में सब ठीक हो जाएगा’ या ‘इसे अकेले रहने दो, मन ठीक होगा तो बात करते हैं ‘ ऐसा सोचकर उस इंसान बातचीत करना बंद कर दी जाती है। इस शोध में शामिल लोगों से जब पूछा गया कि किसी जानने वाले से झगड़े या बहस के बाद वे अपनों से कैसी प्रतिक्रिया की उम्मीद रखते हैं? सबसे ज्यादा लोगों ने यह इच्छा जताई कि लोग उनका पक्ष सुनें और सहमति जताएं। साथ और संवाद के इस भाव से उन्हें किसी के साथ का भरोसा मिलता है। यह बात अजीब लग सकती है।
निराशा में सहमति देना
सवाल उठता है कि निराशा की स्थिति में किसी को सुना तो जा सकता है पर उनका पक्ष जानकर सहमति ही जताई जाए, यह कैसे संभव है? असल में उस मनोदशा में साथ और संवाद की निरंतरता बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। उस समय कुछ भी उनके मन मुताबिक न कहना उन्हें और गमगीन कर सकता है। इसीलिए दुखी करने या उकसाने वाली बात न कहें। बाद में सहज मनःस्थिति में उस घटना के हर पहलू पर बात की जा सकती है। अच्छे से सोच-समझकर सवाल-जवाब भी किए जा सकते हैं। यूं भी परेशानी से निकलने के बाद इंसान स्वयं भी अपने गलत या सही बर्ताव को स्पष्ट रूप से समझ ही जाता है। इसीलिए बिखरी मनोदशा में किसी से किनारा करने के बजाय कुछ कहने-सुनने का रास्ता पकड़ना चाहिए।