भारत को एक युवा देश कहा जाता है। इसकी लगभग आधी जनता कार्यशील आयु वर्ग में है और शिक्षा प्राप्त करने के उपयुक्त आयु अर्थातzwj;् 16 से 26 की उम्र के तहत भी लगभग एक-तिहाई जनता आ जाती है। सरकार ने उच्च शिक्षा को व्यावहारिक और उपयोगी बनाने के लिए नई शिक्षा नीति बना दी है। दरअसल, हर चुनावी एजेंडे में जनता को शिक्षित करना और नौनिहालों को विद्या दान देना एक आकर्षक मुद्दा है, इसलिए लगभग सभी प्रभावशाली पार्टियां शिक्षा में बेहतरी को एक मुख्य एजेंडा मानकर चल रही हैं। पिछले दिनों उच्च शिक्षा के बारे में एक सर्वेक्षण भी आया कि इसके बावजूद अध्ययनरत युवा उचित शोध और अन्वेषण के प्रति झुकाव नहीं रखते हैं। यह भी कि पंजाब, राजस्थान और हरियाणा में नौजवानों का रुख वैज्ञानिक विषयों से अधिक कला संकाय के चयन की ओर हो रहा है। ऐसी बातों को उच्च शिक्षा के नये मॉडल को चुनौती के तौर पर स्वीकार करना चाहिए। वैसे यह तो स्वीकार होता रहेगा, पहले देखें कि इस समय राज्यों में युवाओं को उच्च शिक्षा प्रदान करने का क्या माहौल है?
पंजाब सहित प्राय: सभी राज्यों में कुछ राज्य विश्वविद्यालय हैं और कुछ निजी विश्वविद्यालयों का विकास भी अब तेजी से हो रहा है। शिक्षा का निजीकरण पंजाब में तो इस तेजी से हुआ कि अगर यहां तीन नियमित स्टेट यूनिवर्सिटीज काम कर रही हैं तो लगभग 16 निजी विश्वविद्यालय कार्यरत हैं। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की बात छोड़िए।
पिछले दिनों में पंजाब यूनिवर्सिटी किस राज्य का गौरव है और इस पर पूर्ण अधिकार किसका हो, इसके बारे में दो मीटिंग हुईं। पहली मीटिंग में पंजाब के राज्यपाल एवं चंडीगढ़ के प्रशासक के साथ पंजाब और हरियाणा के मुख्यमंत्री शामिल हुए और इसी की अगली किस्त के रूप में 6 जून को भी दूसरी मीटिंग हुई है। सवाल इन नियमित यूनिवर्सिटियों के आर्थिक संकट का है। बेशक ये यूनिवर्सिटियां पंजाब का गौरव हैं जैसे पंजाब यूनिवर्सिटी, पंजाबी विवि और गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी। लेकिन ये अर्थाभाव से घिरी हैं। एक यूनिवर्सिटी में तो इस साल के शुरू में शिक्षक और गैर-शिक्षक वर्ग को वेतन देने में कठिनाई पैदा हो गई थी जिसको पंजाब सरकार ने उदार अनुदान के साथ हल किया। लेकिन संकट अभी भी खड़े हैं। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल के विश्वविद्यालय ही नहीं बल्कि अन्य विश्वविद्यालय भी सरकारी अनुदान पर निर्भर हैं, अगर वे नियमित हैं। वहीं निजी विश्वविद्यालयों के बारे में शिकायत यह कि ये फीसों आदि की अंधाधुंध वसूली करते हैं। इससे गरीब का बच्चा इनमें नहीं पढ़ सकता। पिछले दिनों इन विश्वविद्यालयों और फीस ढांचे की जांच भी होनी शुरू हुई। हिमाचल के एक विश्वविद्यालय पर भी अनियमितता के चलते कार्रवाई हुई। लेकिन स्टेट यूनिवर्सिटीज़ या केन्द्रीय विश्वविद्यालयों का आर्थिक जिम्मा तो केन्द्र व राज्य सरकारों की सम्मिलित रूप से लेना चाहिए। लेकिन बीते दिनों एक सर्कुलर देश के राज्य विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलरों को प्राप्त हुआ जिसमें उन्हें आत्मनिर्भर होने के लिए यह कहा गया कि हमारे अनुदानों पर निर्भर न कीजिए, अपने कोष बनाइए और उन्हीं से अपना काम चलाइए। इससे पहले इन यूनिवर्सिटियों को चलाने का जिम्मा केन्द्र सरकार और संबंधित राज्य सरकार का संयुक्त रूप से रहता था। इसके लिए शिक्षा कर और सैस भी लगाए जाते थे। बार-बार आर्थिक विशेषज्ञों ने कहा कि देश में शिक्षा और शोध के विकास व अन्वेषण के लिए सरकार अपने जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत व्यय करे। लेकिन किसी भी वर्ष इतना खर्च शिक्षा के विकास पर नहीं हो पा रहा। कर्ज के भार से दबी हुई राज्य सरकारें रियायत, अनुदान की नीति पर चलती रहीं। इसकी नई और आकर्षक योजनाएं घोषित करने में तो कोई विलम्ब नहीं करतीं। राज्य सरकारें कर्जभार से कितनी ही दब जाएं लेकिन जब शिक्षा की बात आती है तो उसके लिए आवंटित राशि में या तो कटौती हो जाती है या फिर उसे पूरा करने के लिए निजी क्षेत्र को आवाज देने की बात होने लगती है। जबकि आधुनिक वैज्ञानिक और डिजिटल जमाने में शिक्षा के बिना आदमी असंबद्ध जैसा है। समय के साथ चलने के लिए उसे न केवल पर्याप्त शिक्षित होना चाहिए बल्कि नये-नये शोध भी उसके विकास मार्ग को सुगम करें। लेकिन जो चिट्ठी हरियाणा सहित अन्य राज्यों के मुख्य सचिवों को अभी प्राप्त हुई है, उसमें इन विश्वविद्यालयों को अपने कोष खुद स्थापित करने के लिए कहा गया है। उन्हें कहा गया है कि वे चाहे अपने पुराने छात्रों से पैसे भेंट के रूप में स्वीकार करें या सार्वजनिक-निजी भागीदारी में प्रोजेक्ट चलाकर कमाएंं या रिसर्च, शोध ग्रांट और अपने अन्वेषण के पेटेंट करवाकर पैसे की कमाई करें। उन्हें अब अपने पैरों पर खड़ा होने की जरूरत है। वहीं यह संदेश रेखांकित करता है कि जब अपने ही पैरों पर खड़े होने की बात आएगी तो ये विश्वविद्यालय छात्रों से अधिक फीस और चार्जेज की मांग करेंगे जिसका बोझ अभिभावकों पर पड़ेगा। क्या महंगाई के इस दौर में वे इन नियमित राज्य विश्वविद्यालयों में दाखिला दिलाकर युवाओं को शिक्षा ग्रहण कर पायेंगे? निजी विश्वविद्यालय तो पहले ही उनकी पहुंच से दूर थे। क्या अब नियमित विश्वविद्यालयों को भी सरकारी अनुदान पर निर्भर न रहने का जो संदेश दिया गया है, वह शिक्षा को कल्याणकारी कार्य के बजाय बाजारीकरण के भरोसे नहीं छोड़ देगा? इस चिट्ठी में यह भी शामिल है कि यूनिवर्सिटियों के पास जो जमीनें और अन्य संसाधान फालतू पड़े हैं, वे उनके भी व्यावसायिक इस्तेमाल के बारे में सोचें। इस प्रकार वे अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास करें। लेकिन सवाल यह है कि किस बात को पहली प्राथमिकता मिले? क्या इसे कि विश्वविद्यालय अब सरकारी अनुदान पर नहीं, अपने प्रयास से कमाई करके जिएं या फिर इस देश की युवा पीढ़ी को इस प्रकार शिक्षा-दीक्षा से आत्मनिर्भर बना दिया जाए कि वह अपनी रोटी खुद कमा सके। वह रियायत के लिए कतारों में खड़ी नजर न आये।
दरअसल, जरूरत नई शिक्षा नीति के बदलते तेवरों को पहचानने की है। युवा पीढ़ी को स्तरीय व उपयोगी शिक्षा प्रदान करने की सामाजिक लागत बहुत कम होगी। जरूरत इस सामाजिक लागत को पहचानने की है, आर्थिक लागत से छुटकारा पाने की नहीं। अगर सरकार अपने संसाधनों को शिक्षा ढांचे को जिंदा रखकर उसे गरीब और निम्न मध्यवर्गीय लोगों तक पहुंचाती रहे तो खर्च किया गया यह धन अर्थव्यवस्था पर भार नहीं होगा। बल्कि इससे सुशिक्षित काबिल युवा पीढ़ी विकास में बेहतर योगदान करेगी जिससे देश की राष्ट्रीय आय, सकल घरेलू उत्पाद, निवेश और खेतीबाड़ी, व्यवसाय और निर्यात में सकारात्मक बदलाव आयेगा। ऐसे में विश्वविद्यालयों को जिंदा रखने पर खर्च किया गया धन बोझ नहीं लगेगा। उम्मीद रखनी चाहिए कि इस प्राथमिकता को सही पहचान मिले और राज्य विश्वविद्यालयों को प्राइवेट यूनिवर्सिटीज की तरह पैसा कमाने की दौड़ में शामिल नहीं होना पड़े।
लेखक साहित्यकार हैं।