हाल के वर्षों में आत्मकेंद्रित सोच के चलते लोग एेसी वस्तुओं का अनावश्यक संग्रह व उपभोग करने लगे हैं, जो दूसरों के हितों का अतिक्रमण करती हैं। कहा भी जाता है कि प्रकृति ने हर व्यक्ति के भरण-पोषण का इंतजाम किया है, लेकिन कुछ लोगों के लालच ने इसे उस तक नहीं पहुंचने दिया है। यह प्रवृत्ति हमारे समाज में तेजी से बढ़ रही है और सामाजिक असमानता का विस्तार हुआ है।
पिछले दिनों एक विवाह समारोह में जाना हुआ। लेकिन इन दिनों तो जाने क्यों, हर समारोह में आत्मीयता की जगह ‘दिखावा’ ही हावी दिखाई देने लगा है। ऐसी तड़क-भड़क थी कि आदमी वह चकाचौंध देखकर एक बार तो भ्रमित ही हो जाए।
विवाह स्थल के बाहर कारों का हुजूम जमा था और सड़क पर ट्रैफिक का जाम लगा हुआ था। किसी तरह हम अंदर पहुंचे, तो हमारे मित्र ने मना करते-करते भी, हमारा लिफाफा लेकर पास खड़े हुए व्यक्ति को दिया और हमारे साथ फोटो खिंचाए। अब शुरू हुआ, वहां लगे तरह-तरह के पंडालों में सजे व्यंजनों को खाने का सिलसिला, तो हम चकरा से गए। वहां इतने स्टाल कि समझ नहीं आ रहा था कि हम खाएं तो क्या खाएं?
हमने देखा कि लोग खा कम रहे हैं और प्लेट्स में जूठा ज्यादा छोड़ रहे हैं। कितने ही स्टाल ऐसे थे, जहां रखे व्यंजनों को कोई छू तक नहीं रहा था। हर तरफ दुरुपयोग और अनुपयोग ज्यादा था, सदुपयोग बेहद कम नज़र आया। एक तरफ इसी देश में ऐसे भी बदनसीब हैं, जिन्हें खाने को सूखी या बासी रोटी भी नहीं मिल पाती और यहां हर तरफ जूठी प्लेटों में वह सब बेकार पड़ा था, जो लोगों ने लिया, पर खाया ही नहीं था। मैंने तो दो रोटी खाई और जब लौटने लगा तो बरबस याद आई एक कथा, जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि हम किधर जा रहे हैं? वह कथा आप भी पढ़िएmdash;
‘एक राज्य में एक बूढ़ा व्यक्ति रहता था, जो वस्तुओं के उपयोग के मामले में बहुत कंजूस था। उसके पास एक चांदी का पात्र था, जिसे वह बहुत संभाल कर रखता था, क्योंकि वह उसकी सबसे मूल्यवान वस्तु थी। उसने सोचा हुआ था कि वह कभी किसी विशेष व्यक्ति के आने पर उसे भोजन कराने के लिए उस पात्र का उपयोग करेगा।
एक बार उसके यहां एक संत आने वाले थे। उसने सोचा कि संत को उस चांदी के पात्र में भोजन परोसेंगे, लेकिन भोजन का समय आते-आते उसका विचार बदल गया। उसने सोचा, ‘मेरा यह पात्र बहुत कीमती है, गांव-गांव भटकने वाले साधु के लिए उसे क्या निकालना?’ किसी राजसी व्यक्ति के आने पर ही इस पात्र का इस्तेमाल करूंगा।
कुछ दिनों बाद उसके घर राजा का मंत्री आया। उसके मन में विचार आया कि मंत्री को चांदी के पात्र में भोजन कराऊं, लेकिन फिर सोचा, ‘यह तो राजा का मंत्री है, जब राजा स्वयं मेरे घर पर भोजन करने आएंगे, तब कीमती पात्र निकाल लूंगा।’ कुछ समय और बीता। एक दिन राजा स्वयं उसके घर भोजन के लिए पधारे, लेकिन राजा कुछ समय पूर्व पड़ोसी राजा से युद्ध में हार गए थे। भोजन परोसते समय बूढ़े व्यक्ति ने विचार किया कि पराजय के कारण इस राजा का गौरव तो कम हो गया है। अपने इस कीमती पात्र में तो अब मैं किसी बड़े गौरवशाली व्यक्ति को ही भोजन कराऊंगा।
इस तरह उसका पात्र बिना उपयोग के पड़ा ही रह गया और कुछ समय उपरांत बूढ़े व्यक्ति की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद, एक दिन उसके बेटे को वह चांदी का पात्र दिखाई दिया, जो बेकार रखे-रखे बेहद काला पड़ चुका था। उसने वह पात्र अपनी पत्नी को दिखाकर पूछा कि इसका क्या करें? वह चांदी का पात्र इतना अधिक काला पड़ चुका था कि पता ही नहीं चल रहा था कि यह चांदी का भी हो सकता है। उसकी पत्नी बुरा मुंह बनाते हुए बोली, ‘कितना गंदा पात्र है, इसे तो कुत्ते को भोजन देने के लिए निकाल दो।’ बस उस दिन के बाद से उन का पालतू कुत्ता बूढ़े के उस मूल्यवान चांदी के बर्तन में भोजन करने लगा।’
मित्रों! सोचता हूं कि यह विडंबना ही तो है कि जिस पात्र को बूढ़े व्यक्ति ने जीवनभर किसी विशेष व्यक्ति के लिए संभाल कर रखा था, अनुपयोग के कारण अंततः उसकी यह गत हुई कि उसमें कुत्ते को भोजन मिला। कोई वस्तु कितनी भी मूल्यवान क्यों न हो, उसका मूल्य तभी है, जब वह उपयोग में लाई जाए। बिना उपयोग के बेकार पड़ी कीमती से कीमती वस्तु का भी कोई मूल्य नहीं होता। याद रखिए, वस्तु की चार गतियां होती हैं, सदुपयोग, उपयोग, दुरुपयोग और अनुपयोग। यदि सदुपयोग और उपयोग हो, तो उत्तम है। दुरुपयोग भी कहीं न कहीं सह लिया जाता है, लेकिन वस्तु का अनुपयोग तो अपराध या फिर पाप ही माना जाएगा।
आइए, हम सभी यह संकल्प लें कि जहां तक संभव हो, जीवन में हर वस्तु का सदुपयोग करेंगे। इस प्रकार हम ‘अनुपयोग’ के अपराध या पाप से तो बच पाएंगे।
‘बीज के भीतर वृक्ष है, कीजे सदzwj;् उपयोग।
बेकार पड़ा सड़ जायेगा, होगा ना उपभोग।’