रतन चंद ‘रत्नेश’
आज तकरीबन दो माह हो गए हैं रामेश्वर जी को सरकारी नौकरी से रिटायर हुए और इन दो माहों में प्रतिपलों की लम्बाई मापते हुए अपने जीवन में वे एक अहम परिवर्तन की चुभन पा रहे हैं। हालात ने अवकाश-ग्रहण के लिए विवश कर दिया था और हालात तो ख्यालात बदल ही देते हैं। जीवन में कई परिवर्तन घटते रहते हैं और ये तो घटने ही हैं क्योंकि परिवर्तन ही तो प्रकृति का शाश्वत नियम है पर इन परिवर्तनों में कुछ ऐसे होते हैं जो चिरकालिक होते हैं और मन-मस्तिष्क को उद्वेलित कर जाते हैं। सुखद परिवर्तनों में इतनी दृढ़-शक्ति नहीं पर दुखद परिवर्तन सर्वदा कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी मनुष्य को कचोटता रहता है।
गत वर्ष के उत्तरार्द्ध में पत्नी के निधन से हुए परिवर्तन ने जीवन में कहीं गहनता से कुछ तोड़ डाला था और आज रामेश्वर बाबू का बचा-खुचा स्वतः टूट रहा है। अपनी छड़ी को हाथ में थामे वे संध्या को घूमने निकले हैं। अब तो प्रातः-सायं टहलना मात्र ही बाह्य दिनचर्या रह गई है। चलते-चलते हाथ में थामी छड़ी का कसाव अपने-आप बढ़ता चला जाता है, जैसे सब कुछ उनकी मुट्ठी से निकला जा रहा हो और वे बचे-खुचे को थामे रखने की असफल कोशिश किए जा रहे हों। कितने प्रेम से लाया था बड़ा लड़का सुमित इस छड़ी को शिमला के लक्कड़ बाजार से। विवाह के बाद अपनी नई नवेली दुल्हन के साथ पहली बार वह वहां घूमने गया था। कई वर्षों तक यह छड़ी घर के एक कोने में अनाथ पड़ी रही पर आज वही रामेश्वर बाबू की संगिनी है, जैसे दिवंगत पत्नी के स्थान पर उन्हें अवलंबन मिल गया हो।
एकांत में वे स्वयं को बहुत अकेला महसूस करते। आरम्भ में कई बार रात को नींद उचटती तो वे पत्नी का नाम पुकारतेmdash; ‘सुलभा, एक गिलास पानी ही पिला दे।’
परंतु जब मन जाग्रत हो उठता तो वे एक आह के साथ करवट बदल सोने का उपक्रम करने लगते। उनकी पानी की प्यास मानो शांत हो जाती या संभवतः वे प्यास को भूलकर दिवंगत पत्नी की यादों में खो जाते।
छोटे बेटे अमित के विवाह के बाद जब वे एक दिन रोज गार्डन में भ्रमण कर रहे थे तो पत्नी ने उनसे कहा था, ‘एक-एक कर हम सभी उत्तरदायित्वों से मुक्त होते जा रहे हैं और वैसे भी अब रह ही क्या गया है? बच्चे ब्याह दिए, घर में बहुएं आ गईं। अब तो मेरे पास अवकाश-ही-अवकाश है। बड़ी बहू मायके से पोते के साथ लौटेगी तब कहीं जाकर कुछ समय उस नन्ही जान के साथ बीतेगा।’
कितनी सहजता से उसने कह दिया था।
प्रत्युत्तर में रामेश्वर जी ने कहा, ‘बस दो वर्ष की बात है, फिर मैं भी तुम्हारे साथ नौकरी से मुक्त होकर अवकाश का लुत्फ उठाऊंगा। बस दोनों मिलकर खुशियां ढूंढ़ा करेंगे। दादा-दादी तो हम बन ही गए हैं। छोटे-छोटे नन्हे-मुन्नो के साथ हम भी बचपन में पहुंच जाएंगे।’
दोनों के अधर मुस्कुरा उठे थे, जैसे रोज़-गार्डन में दो नए गुलाब तभी खिले हों।
परंतु रामेश्वर बाबू की पत्नी के लिए अवकाश का अर्थ पूर्णतः अवकाश साबित हुआ। उनकी दफ्तर से लौटने की प्रतीक्षा करते-करते वह एक दिन चिरनिद्रा में सो गई। चार दिन पूर्व ही तो वे बहू के मायके जाकर मुन्ने से मिलकर आए थे, जैसे अब तक वह उस नये मेहमान को देखने की इच्छा पाले बैठी थी।
अब रामेश्वर बाबू के दिन पहाड़ में परिवर्तित हो गए। जीवन-संगिनी ने तो उन्हें बीच राह पर छोड़ असहाय कर दिया। दफ्तर में भी घुटन महसूस होने लगी और जब सहन नहीं हुआ तो डेढ़ वर्ष पूर्व ही स्वेच्छा से अवकाश ले लिया हालांकि बाद में उन्हें लगा कि उनसे अनजाने में एक गलती हो गई है। चुपचाप कभी बैठे रहने की आदत नहीं रही उनकी। प्रातः पहले की तरह चार बजे उठ जाते। नित्य-कर्म से निवृत्त हो भगवत-भजन के पश्चात कमीज-पतलून की ओर हाथ बढ़ाने को होते तो उन्हें होश आता कि अब तो वे अवकाश ग्रहण कर चुके हैं। नाश्ते की मेज पर भी जाना आवश्यक नहीं समझते और चुपचाप पार्क की ओर निकल जाते।
आरम्भ में किसी कारण दो बार दफ्तर जाना पड़ा तो उन्हें लगा कि उस दफ्तर के लिए अब वे बाहर के आदमी बन चुके हैं। औपचारिकता निभाकर सब अपने-अपने काम में व्यस्त हो जाते। कुछ देर बैठकर वे लौट आए, यह सोचकर कि उनका उस दफ्तर या वहां के लोगों से अब क्या वास्ता? उन्होंने तो उनके लिए बाकायदा ‘विदाई-समारोह’ का आयोजन किया था जिसका सही अर्थ मन से भी विदा करना होता है। दो बार वहां जाने के बाद रामेश्वर बाबू को यह सही अर्थ समझ में आया।
कुछ-न-कुछ करने की छटपटाहट ही संभवतः मनुष्य को जीवित रखती है, परंतु उन बूढ़े-बुजुर्गों को क्या छटपटाहट होती होगी जो पार्कों की बैंचों पर सुबह-शाम टहलते-टहलते आकर बैठ जाते हैं? कुछ-न-कुछ तो होगा ही।
समय के साथ जद्दोजहद करते रामेश्वर जी के किसी तरह दो वर्ष बीत गए। बेटे-बहुओं की सुबह तो व्यस्तता के घेरे में तीव्र गति से घूमती। सुमित और बड़ी बहू पहले ही सोकर उठ जाते। नाश्ता-भोजन बनाकर स्वयं भी दफ्तर के लिए तैयार होना होता और बंटी को भी तैयार करना पड़ता। वह दिन में क्रेच में रहता। छोटी बहू उठकर घर की साज-सफाई में लग जाती। अभी वह बच्चों के अतिरिक्त कार्य से बची हुई थी। सभी बहू-बेटे नौकराशुदा थे। सुनसान घर सारा दिन रामेश्वर जी को खुरच-खुरचकर खाता। बच्चा ही घर होता तो उनके दिन उसके साथ कट जाते पर सुमित और बहू ने यह कहकर उसे क्रेच में डाल दिया था, ‘बाबू जी, आपको यह सारा दिन खामख्वाह तंग किया करेगा।’
‘अरे बेटा, अपने बच्चों से भी कोई तंग होता है।’ उन्होंने हंसकर कहा था, ‘अब तो वह दो वर्ष से अधिक का हो चुका है और मेरे साथ घुलामिला भी है।’
‘नहीं बाबू जी, जब यह हमारे ही नाक में दम कर देता है तो…।’
रामेश्वर जी सोचते, अब उन्हें कैसे समझाएं कि सारा दिन कुछ न कर विश्राम करना कितना भारी पड़ता है। पहले भी उन्होंने एक बार खाने की मेज पर कहा था, ‘बैठे-ठाले जीवन दूभर-सा लगने लगा है। ऐसा प्रतीत होता है कि मैं जी नहीं रहा हूं, बस स्वयं को घसीट रहा हूं।’
क्षण भर के लिए तो सबने चुप्पी साध ली। फिर अमित ने कहा था, ‘बाबू जी, आप जीवन को नकारात्मक दृष्टि से देखने लगे हैं। हमें स्वयं जीवन का सही दृष्टिकोण समझाने वाले आप इस कदर उदासी ओढ़ लेंगे, आश्चर्य होता है।’
‘पर बेटे, तुम ही बताओ।’ उन्होंने रोटी का एक टुकड़ा मुंह में ले जाते-जाते रुकते हुए कहा था, ‘आखिर मैं अकेला सारा दिन घर में करूं भी तो क्या?’
‘मनोरंजन के लिए घर में टीवी है, वीडियो है। आपके शौक का ध्यान रखते हुए हम विशेष रूप से आपके लिए पत्र-पत्रिकाएं, पुस्तकों पर पैसा खर्च करते हैं।’ बड़ी बहू ने कुछ तल्खी से कहा था।
वे चुप रहे। कुछ नहीं कह सके थे। वे सब कुछ सह सकते थे परंतु तल्खी नहीं सह सकते थे। बड़े परिश्रम, लगन तथा प्रेम से घर बसाया था उन्होंने। इसमें कहीं कोई दरार नहीं देखना चाहते थे।
न जाने उन्हें क्या हो गया था कि उम्र के साथ-साथ उनके शौक भी ढल गए थे। पुस्तकों-पत्रिकाओं में भी मन नहीं टिका पाते। उन्हें सब बेमानी लगता। बस, अपना जीवन उन्हें शून्य के घेरे में कैद हुआ जान पड़ता।
अपने हमउम्रों को जब वे पार्कों में ताश खेलते या प्रातः-सायं निरुद्देश्य टहलते देखते तो उन्हें लगता है कि वे सब बूढ़े अपने आपको एक सुन्दर से धोखे में उलझाए रखना चाहते हैं। बस किसी तरह समय मापते चले जाएं। शुरू से ही वे अल्पभाषी थे। बकवादों और बेकारों से बचते आए थे।
उस दिन नौ बजे घर लौटे। इन दिनों बेटे-बहुओं के दफ्तर जाने के पहले ही घर लौट आते, जब से छोटी बहू ने उन्हें चेताया था, ‘बाबू जी, जल्दी घर आ जाया कीजिए। समय ठीक नहीं है। चोरियां बढ़ रही हैं।’
उन्होंने हाथ-मुंह धोया। मकान सूना हो चुका था। गैस पर एक प्याली चाय बनायी और उसे लेकर अपने कमरे में चले आए। दैनिक समाचारपत्र पर उचटती-सी निगाह डाली और चाय पीने लगे।
उन्होंने फिर समाचारपत्र उठाया, पन्ने पलटे और उनकी निगाहें वर्गीकृत विज्ञापनों पर टिक गईं। रिक्त-स्थान में शायद कहीं उनके लायक कोई नौकरी का विज्ञापन ही हो।