डॉ. पंकज मालवीय
रविकांत एक बेहद कर्मठ एवं मेधावी युवा डॉक्टर था। अमेरिका के प्रतिष्ठित माउंट सिनाइ अस्पताल, न्यूयार्क सिटी में हृदय रोग विशेषज्ञ के रूप में उसने असीम ख्याति अर्जित की थी। आज करीब 20 साल बाद वह अमेरिका से उत्तर प्रदेश के मलिहाबाद के अपने गांव माधवपुर को देखने की इच्छा से भारत आया था। जब मुझे उसके आने की सूचना मिली तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। वह मेरे बचपन का दोस्त था और शायद भारत में मुझसे ज्यादा करीब न तो उसका कोई दोस्त था और न ही कोई रिश्तेदार। वह लखनऊ के क्लार्क अवध होटल में रुका। मैं तय समय पर उससे मिलने होटल पहुंचा। काफी लंबे अरसे के बाद हम लोग मिले थे। इसलिए हम बड़े भावुक एवं आत्मीय हो गए थे। परिवार की कुशलता, व्यावसायिक प्रतिबद्धता और स्वास्थ्य आदि की बात पूरी करने के बाद मैंने उससे उसका यहां आने का उद्देश्य पूछा। रविकांत पहले की तुलना में अधिक गंभीर और भावुक हो गया। वह बोला, दोस्त, पिछले 20 सालों में मैंने एक डॉक्टर की हैसियत से अमेरिका में वह सब कुछ हासिल किया जो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। मैं अपना गांव देखने जाना चाहता हूं। और आज ही मैं वहां जाना चाहूंगा।
रविकांत की गांव जाने की तीव्र ललक और चाहत देखकर मैं थोड़ा हैरान था। मैंने उससे कहा, लेकिन वहां तो तुम्हारी जान पहचान का कोई व्यक्ति नहीं होगा। तुम वहां किससे मिलोगे? तो उसने तपाक् से कहा, अपनी स्मृतियों से, अपने बिताए वक्त से, अपने संघर्ष से और अपनी प्रेरणा से! किसी ऐसे व्यक्ति का जो इतने लंबे समय से अपनी मिट्टी से दूर रहा हो और किसी दूसरे देश का नागरिक होने के बावजूद उसकी अपनी जड़ों की ओर जाने की तीव्र इच्छा और आकर्षण अवश्य ही रहस्यमय था। मेरे कौतूहल ने मुझे उस रहस्य को जानने को प्रेरित किया। बिना वक्त गंवाए मैंने उसके साथ गांव जाने की हामी भर दी।
मलिहाबाद लखनऊ से करीब 30 किलोमीटर दूर था। अपने खास दशहरी, सफेदा और चौसा आम के लिए वह पूरे विश्व में प्रसिद्ध था। मलिहाबाद मशहूर शायर जोश मलिहाबादी की जन्मभूमि भी रही थी। हम नाश्ता करके टैक्सी से मलिहाबाद के लिए रवाना हुए और करीब एक घंटे में हम मलिहाबाद पहुंच गए। पिछले 20 सालों में मलिहाबाद अब काफी बदल चुका था। कच्चे मकानों की जगह बड़े-बड़े पक्के मकान खड़े हो गए थे। सड़कें पक्की हो गई थी। गांव में बिजली आ गई थी और नल में जल। और उस वक्त के अनुभवी लोगों में कुछ चंद लोग ही बचे थे जो अब काफी बूढ़े हो चुके थे। उनकी स्मृतियां भी धूमिल हो गई थी। रविकांत को अपना घर ढूंढ़ने में काफी मेहनत करनी पड़ी। घर की जगह तो मिल गई पर घर का कोई अवशेष न मिला। उस जगह पर एक आलीशान मकान बना हुआ था। वह किसी हाजी अब्बास अली का मकान था। जिनके दोनों लड़के दुबई में व्यापार करते थे। हाजी अली की उम्र कोई पचासी साल की रही होगी।
प्रारंभिक परिचय के बाद हाजी जी ने हमें घर के अंदर बैठक में बड़े अदब से बैठाया। रविकांत ने बात के शुरू में ही किसी मोहम्मद रहमान अली खान साहब का जिक्र छेड़ा जो मलिहाबाद में ‘छोटे नवाब’ के नाम से जाने जाते थे। उनके बाप-दादाओं की आस पास के गांव में रियासतें हुआ करती थीं। अंग्रेज शासकों से टकराव के कारण वे रियासतें और ठाठ बाट धीरे-धीरे खत्म हो गया था। छोटे नवाब सुशिक्षित, अत्यन्त शालीन, मृदुभाषी और बेहद अनुशासित व्यक्ति थे। वह जब भी घर से बाहर निकलते उनके रौबीले हाव-भाव से हर व्यक्ति बेहद आकर्षित और प्रभावित हो जाता था। बंद गले की लंबी शेरवानी, उस पर ऊपरी बटन से जेब के अन्दर जाती घड़ी की सोने सी चमकती चेन, चूड़ीदार पैजामा, आगे से उठा हुआ नक्काशीदार नागरा, बकरम लगी तिरछी काली टोपी, तलवार कट मूछें, हाथ में सुनहरी मुट्ठी वाली छड़ी और पान रखने की चांदी की डिबिया और रौआबी चेहरे पर हमेशा बिखरी मुस्कान, यह था उनका भव्य व्यक्तित्व! उनके इस बाह्य रूप को देखकर कोई भी उनके अंदर धधकती क्रांति की ज्वाला का अंदाजा नहीं लगा सकता था जो देश के लिए किसी भी पल मर मिटने का दम रखती थी।
दरअसल रविकांत के घर के पास एक हलवाई की दुकान हुआ करती थी। वहां शाम के वक्त पीपल के चबूतरे पर गांव के बुजुर्ग इकट्ठा हुआ करते थे। छोटे नवाब भी वहां आया करते थे। लेकिन वह बुजुर्गों की टोली में नहीं बैठते थे। उन्हें बच्चों से बड़ा लगाव था। वही पास खेल रहे बच्चों के पास वह चले जाते थे। सभी बच्चों को भी उनसे बड़ा प्यार था। उनके आते ही बच्चे अपना-अपना खेल छोड़कर उन्हें घेर लेते थे। छोटे नवाब अपने बचपन और जवानी के किस्से उन्हें बड़े दिलचस्प अंदाज़ में सुनाया करते थे और बच्चों को बड़ा मज़ा आता था। उन बच्चों में रविकांत भी शामिल था। हर शाम बच्चों को छोटे नवाब का बेसब्री से इंतजार रहता था।
जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए आगे पढ़ने और बढ़ने के लिए उनका गांव पीछे छूटता गया और पीछे छूट गए छोटे नवाब। रविकांत के मन में छोटे नवाब की छवि आज भी ताजा थी। उसे उनकी एक-एक बात याद थी। छोटे नवाब की प्रेरणादायक बातें रविकांत के जीवन में बड़ा बदलाव लाई थीं। बचपन में ही पिता की अनुपस्थिति में छोटे नवाब ने रविकांत की जीवन धारा को ही बदल दिया था। आज जिस मुकाम पर रविकांत था उसका पूरा श्रेय वह छोटे नवाब को देता था। वह छोटे नवाब के बारे में अधिक से अधिक जानने के लिए उत्सुक व जिज्ञासु था। उसने हाजी जी से छोटे नवाब के बारे में जानना चाहा।
हाजी जी ने अपने दिमाग पर जोर देते हुए और दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा, बेटा रवि.., छोटे नवाब जैसी रूह इस ज़मीन पर कभी-कभी ही आया करती है। नवाब के तीन बेटे थे। तीनों को नवाब ने अच्छी शिक्षा दिलवाई और उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाया। नवाब को लगा कि उनका पारिवारिक दायित्व पूरा हो गया है। तो उन्होंने अपने बेटों को बिना बताए अपनी हवेली एक स्कूल को दान कर दी और खुद हवेली के पीछे एक कमरे में रहने लगे। छोटे नवाब के पास एक संदूक था, जिसे वह अपनी जान से ज्यादा चाहते थे और हमेशा अपनी निगरानी में रखते थे। संदूक में जंजीर के साथ एक बड़ा ताला लगा था। लोगों का कहना था कि इस संदूक में छोटे नवाब के बाप-दादाओं की बहुमूल्य संपत्ति कैद है। कई बार इस बात को लेकर छोटे नवाब और उनके बेटों के बीच खूब तनातनी भी हुई। बेटे कहते थे कि संदूक में बंद उनके बाप-दादाओं की कमाई पर उनका भी हक है और उनके बीच इसका बराबर से बंटवारा होना चाहिए। छोटे नवाब उस संदूक के पास किसी को भी फटकने नहीं देते थे। एक सशक्त प्रहरी की तरह उसकी रक्षा करते। जितना वह इस संदूक की सतर्कता से देखभाल करते उतना ही लोगों के बीच यह अफवाह फैलती कि इस संदूक में ज़रूर कोई कीमती और नायाब चीजें रखी होंगी जिसकी कीमत आंकना संभव नहीं होगा। छोटे नवाब के बेटों में इस बात को लेकर बड़ा असंतोष था। उन्होंने अपने ही पिता के विरुद्ध अदालत में मुकदमा दायर किया और अपने बाप-दादाओं की जमा संपत्ति का अपने बीच बराबर से बंटवारा करने की गुहार लगाई। कई साल तक मुकदमा चला। पर छोटे नवाब का दिल नहीं पसीजा और वह संदूक को लेकर पहले से अधिक सख्त, सजग और सतर्क हो गए। उन्होंने अपने बेटों के घर आने पर पाबंदी लगा दी। बेटों ने भी अपने पिता के प्रति ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया।
जिस दिन अदालत का फैसला आना था उसी दिन छोटे नवाब की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। मौत पर मातम मनाने से ज्यादा उनके बेटे और लोगों में इस बात की बड़ी उत्सुकता और उत्कंठा थी कि संदूक में कौन सी दौलत छिपी है। अदालत की निगरानी में संदूक का ताला तोड़ा गया। पूरा का पूरा गांव छोटे नवाब के घर के इर्द-गिर्द जमा हो गया। लोग अपने-अपने घरों के बारजों और छतों पर इकट्ठा हो गए। लोगों के दिलों की धड़कनें बढ़ गईं। सबकी निगाहें संदूक पर ही एकटक टिकी रही। जब संदूक खोला गया तो उसमें रखी चीज़ों को देखकर सब लोग दंग रह गए। उसमें से सबसे पहले आजाद हिंद फौज के सैनिक की वर्दी निकली। फिर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के दस्तखत वाला ताम्र पत्र और कुछ शौर्य पदक और आजाद हिंद फौज का एक झंडा निकला। सबसे आखिर में छोटे नवाब की वसीयत निकली जिसमें लिखा था कि जब मेरी मौत हो तो मुझे आजाद हिंद फौज के इस झंडे में लपेट कर उसकी वर्दी, ताम्र पत्र और शौर्य पदक के साथ दफनाया जाए ताकि मैं सुकून से चिर निद्रा में सो सकूं। यह देखकर वहां उपस्थित सभी लोग अवाक् थे।
हाजी जी यह सब कुछ रविकांत को जब बता रहे थे तो मैं रविकांत के हाव-भाव को बड़े ध्यान से देख रहा था। वह बेहद गंभीर और एकाग्र था। बात खत्म होने पर रविकांत ने छोटे नवाब की कब्र पर जाने की इच्छा जताई।
हम पास के कब्रिस्तान गए। बड़ी मुश्किल से हमें छोटे नवाब की कब्र मिली। कब्र क्या थी केवल मिट्टी का एक टीला और उसके आसपास उगी ऊंची-ऊंची घास और जंगली झाड़ियां। छोटे नवाब की वसीयत के मुताबिक उनकी कब्र पर न तो कोई पत्थर लगाया गया था और न ही कोई सजावट की गई थी। पूरे कब्रिस्तान में बिना पत्थरों और सजावट वाली यह अकेली कब्र थी। कब्र पर सजदा करते वक्त रविकांत फूट-फूट कर रोने लगा। एक देशभक्त हिंदुस्तानी को आज उसके देश के सपूत की सच्ची, अश्रुपूर्ण और भाव-भीनी श्रद्धांजलि थी।