ज्ञानेन्द्र रावत
कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को छठ पर्व कहा जाता है, जो वास्तव में सूर्योपासना का पर्व है। इसे सूर्यषष्ठी भी कहा जाता है। इस पर्व में सर्वशक्तिशाली भगवान सूर्य की पूजा की जाती है। छठ यानी षष्ठी देवी का रूप है। सूर्य यानी प्रकृति और देवी की आराधना का यह पर्व संतान की रक्षा और दीर्घायु के लिए किया जाने वाला बिहार का पारंपरिक लोक पर्व है।
प्रकृति और माया का महत्व
श्वेताश्वतरोपनिषद में परमात्मा की माया को ‘प्रकृति’ और माया के स्वामी को ‘मायी’ कहा गया है। यह प्रकृति ब्रह्मस्वरूपा, मायामय और सनातनी है। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार, परमात्मा ने सृष्टि के लिए योग का अवलम्बन कर अपने को दो भागों में बांटा। दक्षिण भाग से पुरुष और वाम भाग से प्रकृति का जन्म हुआ। प्रकृति शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की गई है। ‘प्र’ का अर्थ है प्रकृष्ट और ‘कृति’ का अर्थ है सृष्टि, यानी प्रकृष्ट सृष्टि।
सूर्य की भूमिका
सूर्य प्रकृति के महत्वपूर्ण कारकों में से एक है। सूर्य का प्रकाश और ऊर्जा जल के बाद जीवनदायिनी मानी जाती है, जिसके प्रमाण पुराणों में वर्णित हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि सूर्य समस्त विश्व को जागृति देने वाले देव हैं। वे हमारे भूत हैं, या यों कहें कि हमारे पूर्वजों के प्रतिनिधि हैं। ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को आत्मा के रूप में सम्बोधित किया गया है।
ज्योतिष और ऊर्जा
ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को मेष राशि में उच्च का माना जाता है। मेष राशि का स्वामी मंगल है, जो ऊर्जा का कारक है। मंगल सात्विक शक्ति और अनाचार के विरुद्ध सत्य की शक्ति का कारक है। तात्पर्य यह है कि जब भी आत्मा सत्य से प्रेरित होगी और ऊर्जा से युक्त होगी, तब वह ऊर्ध्व गमन यानी ऊपर की ओर गति करेगी और सम्मान दिलाने में अहम भूमिका निभाएगी।
छठ पर्व का महत्व
गौरतलब है कि कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी का उल्लेख स्कन्ध षष्ठी के नाम से भी किया गया है। भगवान सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति और ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक साथ प्राप्त होता है। छठ पूजा के अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीतों में स्त्री व्यक्तित्व की प्रधानता, प्रकृति संरक्षण और जैव विविधता के कई संदेश हैं।
लोकगीतों में संदेश
छठ पर गाए जाने वाले एक गीत पर गौर करें— ‘रूनकी झुनकी बेटी मांगीला…’। भक्तों का छठी मइया से यह आग्रह समाज में बेटियों की महत्ता का परिचायक है। वहीं ‘मांगीला पढ़ल पंडित दामाद…’ समाज को संतुलित करते हुए शिक्षा पर बल देता है।
जल स्रोतों का महत्व
अर्घ्य हेतु जल स्रोतों की महत्ता सर्वविदित है। यह पर्व लगातार विलुप्त होते तालाब, आहर, पोखर और नदियों को जीवनदान देने के लिए प्रेरित करता है। यह प्रकृति संतुलन की दीर्घकालिक योजना को जीवंत बनाए रखने का संकेत है।
प्राकृतिक चेतना
‘कांच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए…’ यह विलुप्त होते जंगलों के साथ बांस की उपलब्धता में कमी दर्शाता है। तात्पर्य यह है कि यह गीत चेतावनी है कि यदि जंगल इसी रफ्तार से काटे जाते रहे, तो धीरे-धीरे बांस भी लुप्त हो जाएंगे।
जैव विविधता का संरक्षण
मौजूदा दौर में फसलें लाभ-हानि के मद्देनजर पैदा की जाने लगी हैं। अधिकतर शकरकंद, सुथनी, त्रिफला और ईख की खेती अब कहीं-कहीं ही की जाती है। इनका महत्व अब पर्वों पर ही सिमट कर रह गया है। जैव विविधता के संरक्षण की दृष्टि से इन्हें बरकरार रखना बेहद जरूरी है।
कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन
इस पर्व पर बांस के सूप, डलिया, मिट्टी के चूल्हे, मिट्टी के दीये, ढकना, अगरबत्ती आदि का महत्व जगजाहिर है। छठ पर इन वस्तुओं की उपयोगिता से इन कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिलता है।
महाव्रत का दिव्य स्वरूप
दरअसल, छठ का महाव्रत सूर्यदेव को पूजने वाली हमारी पुरातन परंपरा का दिव्य स्वरूप है। यह अटूट आस्था का संबल इस महाव्रती के साधकों को छत्तीस घंटों के निर्जल उपवास में और ऊर्जावान बना देता है।
समुदाय की एकता
उम्र और वर्ग का फर्क मिटाता यह महापर्व ‘नहाय-खाय’ और ‘खरना’ से सूर्य देव को अर्घ्य देने तक पूरे परिवार को आस्था और उमंग की डोर में बांधे रखता है। असलियत में यह पर्व प्रकृति से संतुलन साधने का महापर्व है।
व्रत और अनुष्ठान का पालन
सच कहा जाए तो कार्तिक के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से लेकर सप्तमी तक इस पर्व के व्रत और अनुष्ठान नियम और निष्ठापूर्वक संपन्न होते हैं। चतुर्थी को सभी व्रतीजन स्नान कर सात्विक भोजन करते हैं। इसे ‘नहाय-खाय’ कहते हैं।
प्रसाद का महत्व
पंचमी को पूरे दिन व्रत रखकर संध्याकाल में प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसे ‘खरना’ और ‘लोहंडा’ कहते हैं। षष्ठी को दोपहर से ही नदियों-तालाबों के किनारे व्रतीजनों का अंबार जुटने लगता है। महिलाएं सूर्य और छठ मइया के गीत गाते हुए समूह में अपने घरों से निकलती हैं।
सूर्य देव को अर्घ्य
वे बांस से निर्मित सूप और डलिया में सूर्य देव को चढ़ाने का प्रसाद लिए होती हैं, जिसमें सभी प्रकार के ऋतुफल, कन्दमूल, मिष्ठान और पकवान होते हैं। प्रसाद सामग्री में गुड़ और आटे से बना ‘ठेकुआ’ और ‘लडुआ’ जरूरी होता है। ठेकुआ पर लकड़ी के सांचे से सूर्य के रथ का चक्र अंकित होता है।
सप्तमी का अनुष्ठान
जैसे ही सूर्य अस्त होने लगता है, सभी व्रतीजन जल में खड़े होकर दोनों हाथों से सूर्य भगवान को अर्घ्य अर्पित करते हैं। सप्तमी को ब्रह्म मुहूर्त से ही भगवान सूर्य के उदय होने की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं।
खुशहाली की कामना
वे छठ मइया से विनती करते हैं कि सूर्य भगवान जल्दी से हमें दर्शन दें और सबको खुशहाली का वरदान दें। इसके साथ ही मांगलिक गीतों की स्वर लहरी के साथ उदित होते सूर्य को अर्घ्य प्रदान कर खुद को धन्य समझते हैं।
समारोह की जीवंतता
गौरतलब है कि दिवाली के छठवें दिन देश की बड़ी आबादी के बीच बड़ी धूम और श्रद्धा के साथ सदियों बाद भी यह उत्सव अपने मूल स्वभाव को संजोये हुए है।
संस्कृति-विज्ञान का सम्मिलन
सैकड़ों सदियों पूर्व परंपरा और विज्ञान के सम्मिश्रण से जीवन-शैली पर उकेरा गया यह समारोह आज भी उतना ही जीवंत और सारगर्भित है।
पर्व की जीवंतता
सच तो यह है कि आधुनिकता की आंधी भी इस प्राचीन प्रथा को अस्त-व्यस्त करने में नाकाम रही है।
सूर्य से रिश्तों का उत्सव
असलियत में यही इस पर्व की जीवंतता, नियम-निष्ठा के उच्चादर्श की विशेषता और आस्था, विश्वास, संकल्प की पराकाष्ठा का परिचायक भी है।