प्रमोद भार्गव
समुद्र-मंथन के अंत में आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि देव और दानवों को हाथों में अमृत-कलश लिए मिले थे। समुद्र-मंथन की जानकारी विश्व के उन सभी दूरांचलों में फैल गई थी, जिनकी अपनी सत्ता थी। उस समय धन्वन्तरि चिकित्सा क्षेत्र के बड़े अनुसंधित्सु और वैद्य के रूप में विख्यात हो चुके थे।
श्रीमद् भागवत और वृहतः ब्रह्मानंद उपनिषद् के अनुसार समुद्र मंथन की प्रक्रिया आगे बढ़ने पर, प्रकट होने वाले 14 रत्नों में से एक भगवान धन्वन्तरि थे। धन्वन्तरि स्वयं इंद्र के यज्ञांश-भोजी थे। इसीलिए सनातन धर्म में यह मान्यता चली आ रही है कि भगवान विष्णु ने जीव-जगत के त्राण के लिए जो 24 अवतार लिए, उनमें धन्वन्तरि बारहवें अंशावतार हैं। धरा पर प्राणियों की सृष्टि से पहले ही प्रकृति यानी ब्रह्मा ने घटक-द्रव्य युक्त वनस्पति जगत की सृष्टि कर दी थी, ताकि रोगग्रस्त होने पर उपचार के लिए मनुष्य उनका प्रयोग कर सके। धन्वन्तरि और उनकी पीढ़ियों ने ऐसी अनेक वनस्पतियों की खोज व उनका रोगी मनुष्य पर प्रयोग किए। इन प्रयोगों के निष्कर्ष श्लोकों में ढालने का उल्लेखनीय काम भी किया, जिससे इस खोजी विरासत का लोप न हो। इन्हीं श्लोकों का संग्रह ‘आयुर्वेद’ है। एक लाख श्लोकों की इस संहिता को ‘ब्रह्म-संहिता’ भी कहा जाता है।
मत्स्यावतार के समय भगवान विष्णु ने वेदों का उद्धार किया था। तभी विष्णु ने वहीं वेदों के साथ अथर्ववेद के उपांग के रूप में आयुर्वेद को भी प्राप्त करने का उल्लेख किया है। भूलोक में प्राणियों को रोगों से पीड़ित व मृत्यु को प्राप्त होते देखकर भगवान विष्णु द्रवित हुए और विशुद्ध नामक मुनि के पुत्र के रूप में अवतरित हुए। वे भूलोक में चर की भांति छिपकर आए थे, इसलिए चरक नाम से पृथ्वी पर प्रसिद्ध हुए। इन्हीं चरक ने ऋषि-मुनियों द्वारा रचित संहिताओं को परिमार्जित करके ‘चरक-संहिता’ की रचना की थी। यह ग्रंथ आयुर्वेद का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।
एक अन्य पुराण-कथा में उल्लेख है कि एक बार इंद्र ने मनुष्यों को बड़ी संख्या में रोगग्रस्त पाया। उन्होंने धन्वन्तरि को आयुर्वेद का संपूर्ण ज्ञान देने के लिए ज्ञान परंपरा की परिपाटी चलाने का अनुरोध किया। इसके बाद धन्वन्तरि ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में जन्म लिया। अपने पिता विश्वामित्र की आज्ञा पाकर महर्षि सुश्रुत अपने साथ एक सौ ऋषि-पुत्रों को लेकर काशी पहुंचे और वहां आयुर्वेद की शिक्षा ली। तत्पश्चात इस समूह ने लोक कल्याणार्थ अपनी-अपनी संहिताओं एवं ग्रंथों की रचना की और उनके माध्यम से समस्त भूमंडल के लोगों को निरोगी बनाने की उपचार पद्धतियां शुरू कीं। इसी कालखंड में सद्वैद्य वाग्भट्ट ने भी धन्वन्तरि से ज्ञान प्राप्त किया और ‘अष्टांग हृदय संहिता’ की रचना की। सुश्रुत संहिता तथा अष्टांग हृदय संहिता आयुर्वेद के प्रमाणिक ग्रंथों के रूप में आदि काल से हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। आयुर्वेद व अन्य उपचार संहिताओं में स्पष्ट उल्लेख है कि प्रत्येक प्राणी का अस्तित्व पंच-तत्वों से निर्मित है और संपूर्ण प्राणी स्वेदज, जरायुज, अण्डज और उदिभ्ज रूपों में विभक्त हैं। इन शास्त्रों में केवल मनुष्य ही नहीं पशुओं, पक्षियों और वृक्षों के उपचार की विधियां भी उल्लेखित हैं। साफ है, भारत में चिकित्सा विज्ञान का इतिहास वैदिक काल में ही चरम पर पहुंच गया था।
ऋग्वेद के पश्चात अथर्ववेद लिखा गया, जिसमें भेषजों की उपयोगिताओं के वर्णन हैं। इसका अधिक विस्तार से आयुर्वेद में हुआ है। यही आयुर्वेद भारतीय चिकित्सा विज्ञान की आधारशिला है। इसे उपवेद भी माना गया है। इसके आठ आध्याय हैं, जिनमें आयुर्विज्ञान और चिकित्सा के विभिन्न पक्षों पर विचार किया गया है। इसका रचनाकाल पाश्चात्य विद्वानों ने ईसा से ढाई से तीन हजार साल पुराना माना है। ईसा से करीब डेढ़ हजार साल पहले लिखी गई सुश्रुत संहिता में शल्य-विज्ञान का विस्तृत विवरण है। इसी काल में चरक संहिता का प्रादुर्भाव माना जाता है। इसमें चिकित्सा विज्ञान विस्तृत रूप में सामने आया है। इसमें रेचक, वामनकारक द्रव्यों और उनके गुणों का वर्णन है। चरक ने केवल एकल औषधियों को ही 45 वर्गों में विभाजित किया है। इसमें औषधियों की मात्रा और सेवन विधियों का भी तार्किक वर्णन है। सुश्रुत और चरक की आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में अब गणना होने लगी है। यही कारण है कि ऐलोपैथी की दवा निर्माता कंपनियां भी सुश्रुत और चरक के अपने कैलेंडरों में शल्य क्रिया करते हुए चित्र छापने लगे हैं। इस विचरण से पता चलता है कि धन्वन्तरि द्वारा आविष्कृत आयुर्वेद की ज्ञान परंपरा वैदिक युग के पूर्व से लेकर भारत में विदेशी आक्रांताओं के आने से पहले तक विकसित होती रही है।