बौद्ध धर्म की नास्तिकतावादी विचारधारा का खंडन करने के लिए कुमारिल भट्ट ने तक्षशिला विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म का अध्ययन पूरा किया। प्रथा के अनुसार छात्रों को आजीवन बौद्ध धर्म के प्रति निष्ठावान रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी। कुमारिल ने झूठी प्रतिज्ञा ली और शिक्षा समाप्त होते ही बौद्ध मत का खंडन और वैदिक धर्म का प्रसार आरंभ कर दिया। अपने प्रयास में उन्हें सफलता भी बहुत मिली पर अंत:करण विक्षुब्ध ही रहा। गुरु के सामने की हुई प्रतिज्ञा से उनकी आत्मा हर घड़ी दुखी रहने लगी। अंत में इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने अग्नि में जीवित जल जाने का निश्चय किया। प्रायश्चित का करुण दृश्य देखने के लिए देशभर के अनेक विद्वान पहुंचे, उन्हीं में आदि शंकराचार्य भी थे। उन्होंने कुमारिल भट्ट से कहा, ‘आपने तो जनहित के लिए ऐसा किया था, फिर प्रायश्चित क्यों कर रहे हो?’ कुमारिल भट्ट ने कहा, ‘अच्छा काम भी अच्छे मार्ग से ही किया जाना चाहिए, कुमार्ग पर चलकर श्रेष्ठ काम करने की परंपरा गलत है। अतएव सदाचार की सर्वोत्कृष्टता प्रतिपादित करने के लिए मेरा प्रायश्चित करना ही उचित है।’
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी