अखिलेश आर्येन्दु
भारत की सांस्कृतिक परंपरा में मनाए जाने वाले सभी पर्व, त्योहार और उत्सव व्यक्ति, समाज और समुदायों को किसी न किसी रूप में सीख और ज्ञान देने का कार्य करते हैं। ऐसा ही सीख देने वाला त्योहार दीपावली है- जो हर तरह के अंधकार से निकल कर प्रकाश की तरफ बढ़ने की प्रेरणा और संकल्प बद्ध होने की सीख देती है। दीपावली या का ताल्लुक वैदिक धर्म, अध्यात्म और मूल्यपरक संस्कृति से है। इसलिए यह मानव मात्र के लिए है यानी किसी खास जाति या धर्म की प्रतिनिधि नहीं है। तमसो मा ज्योतिर्गमय की प्रेरणा मानव को सनातन से मिलती रही है। यह सनातनता इंसानी जिंदगी को रोशन कर उसे ज्ञान-विज्ञान की तरफ ले चलने का कार्य करती रही है वहीं कृषि जीवन का अहम हिस्सा रही है। इसमें वह दीप है जो धन, उत्साह, धैर्य, धर्म यानी कर्तव्य से विमुख न होने का प्रतीक भी है।
तमस हटाने का संकल्प दिवस
दीपावली पर यह नन्हा सा माटी का दीया देहरी पर जला, खेत में जला और आंगन में जला। और यही दीया जब मन में जला, सारा जीवन रोशनी से भर गया। तब लगता है, जीवन का सच यही है, कि आलोक और सत्य के बिना जीवन अधूरा है। हम पाते हैं कि दीपावली जीवन को आलोक से पूर्ण कर तमस का नाश करने का संकल्प दिवस भी है। और मन का संकल्प जाग उठता है फिर कह उठता है- जलाओ ज्ञान दीप मन आज। छोड़ दे जीवन की भाग-दौड़ व सारे कलुषित काज। दीपोत्सव का हर साल इस कदर इंतजार क्या पटाखे छुड़ाने, उपहार लेने, व्यापार बढ़ाने को है या फिर ज्ञान की देवी की आराधना और जागरण कर चेतना की पूर्णता के लिए? बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से भरे वातावरण में केवल एक दीप। पौराणिक संदर्भों पर नज़र डालते हैं तो लगता है, दीपावली मानव को अंधकार से प्रकाश और असत्य से सत्य, पुरातनता से चिर नवीनता के भाव बोध की ओर ले चलने के लिए हमेशा प्रेरित करती आई है। यही कारण है विश्व मानव किसी न किसी दिन, खास अवसर पर दीप जलाकर प्रकाश को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाने का संकल्प लेता है।
दीपावली और परम्परा
दीपावली पर माटी के दीपक जलाने की परंपरा का भी अपना एक अलग भाव और व्यंजना है। जिन्हें हम सही समझ के साथ आत्मसात् कर लेते हैं तब दीपावली का दीप महज एक दीप नहीं रह जाता बल्कि एक आलोकित सभ्यता-संस्कृति का प्रतीक बन जाता है। आलोक का मूल्यांकन दीप और सूर्य के अवदान से नहीं बल्कि उनके संकल्प से करना चाहिए।
अंतश्चेतना को करें प्रकाशित
आज ऐसे ही तमाम सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक दीपों को जलाने की जरूरत महसूस की जा रही है। जो आत्मदीपो भव के लिए हमारी अंतश्चेतना को प्रकाशित कर सकें। प्रकाश के इस उत्सव को हम महज पटाखे फोड़कर प्रदूषण बढ़ा कर या महंगे बिजली के झालरों को सजाकर पूर्ण न मान लें बल्कि इसकी उत्सवधर्मिता को समझने की कोशिश करें। जिस दीपक को हम जलाते हैं वह हमारे ज्ञान का भी तो प्रतीक है। ज्ञान से अज्ञानता का नाश होता है। ज्ञान को सत्य माना गया है। लेकिन केवल सत्य से ज्ञान पूर्ण नहीं बनता है बल्कि इसमें सौंदर्य और शुभत्व भी होना चाहिए। लक्ष्मी तभी फलदायी होती है जब सरस्वती का फलभोग किया जाता है। यानी अर्थ के सदुपयोग बिना विद्या यानी ज्ञान नहीं हो सकता है। जिस जगह धन के साथ अविद्या यानी भ्रष्टाचार व कदाचार हावी रहते हैं, उस धन का नाश होने में कितना वक्त लगता है। इसलिए लाभ के साथ हमारी परंपरा में शुभ भी लिखा जाता है। इस दर्शन को आज समझने की जरूरत है।
खुद में बढ़ाएं दैवीय सम्पत्ति
12 नवम्वर 1947 को गांधीजी ने प्रार्थना सभा के बाद के अपने उद्बोधन में कहा था-हम दीपावली का उत्सव मनाते हैं, इसका मतलब यह हुआ हमने कुछ अच्छा कार्य कर लिया है। जिस राम-रावण के युद्ध के बाद राम की विजय हुई और रावण की हार हुई उसको हमें समझने की जरूरत है। राम दैवीय सम्पदा के प्रतीक हैं और रावण आसुरी के। राम की विजय का मतलब है कि हमें अपने अंदर आसुरी सम्पत्ति के ऊपर दैवीय सम्पत्ति की विजय पानी चाहिए। दीपावली को उस रूप में मनाना चाहिए जिससे हमारे अंदर दैवीय सम्पत्ति बढ़े।
दीपावली हमारे लिए ज्ञान-विचार उत्सव का महापर्व है जहां हमको अपने अंदर ही नहीं, समाज और संस्कृति में बढ़ रहे अंधेरे का नाश करने के लिए आत्मदीप जलाने का संकल्प लेना चाहिए। इससे परिवार, वातावरण और समाज में एक नई रोशनी रोशन हो सकेगी। देखना यह भी है कि आजादी के बहत्तर सालों में समाज, संस्कृति और राजनीति में फैले अंधेरे के प्रति लोगों में जागृति क्यों नहीं आई? सोचना यह भी कि क्या दीपावली के दीये की रोशनी से ही समाज और संस्कृति में फैले अंधेरे को हटाया जा सकता है?