सन् 1954 की बात है। कलकत्ता में उन दिनों सरस्वती पूजा मनाई जा रही थी। कुछ बच्चे सरस्वती पूजा का चंदा लेने के लिए महान वैज्ञानिक डॉ. मेघनाद साहा के पास पहुंचे। डॉ. साहा ने उनसे पूछा, ‘तुम लोग सरस्वती की पूजा किस तरह से करोगे?’ एक बच्चे ने जवाब दिया, ‘हम लोगों ने देवी सरस्वती की एक प्रतिमा बनाई है, पुजारी उनकी पूजा करेंगे।’ इतने में दूसरा बच्चा बोला, ‘एक तरफ पूजा तो होगी ही, दूसरी ओर संगीत समारोह भी चलेगा। हमने मोहल्ले में लाउडस्पीकर बांध रखे हैं, शाम को नाटक भी खेला जाएगा। हम लोग ऐसे ही सरस्वती पूजा मनाते हैं।’ सबकी बात सुनकर डॉ. साहा बोले, ‘चलो, मैं तुम सबको दिखाता हूं कि मैं किस तरह से सरस्वती की पूजा करता हूं।’ डॉ. साहा उन्हें अपने अध्ययन कक्ष में ले आए। जैसे ही बच्चों ने डॉ. साहा के अध्ययन कक्ष में कदम रखा, आश्चर्य से उनकी आंखें खुली रह गईं। उन्होंने किताबों से भरी अलमारियां देखीं। वहां अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन और संस्कृत भाषाओं की हजारों पुस्तकें थीं। अधिकतर तो विज्ञान की थीं, लेकिन इतिहास, दर्शन, अर्थशास्त्र, धर्म और दूसरे विषयों की पुस्तकें भी खूब थीं। बच्चों से डॉ. साहा बोले, ‘अगर तुम मेहनत से मन लगाकर पढ़ते हो तो समझ लो कि विद्या की देवी को सबसे बड़ा आदर दे रहे हो।’ प्रस्तुति : निशा सहगल