विजय सिंगल
कर्ता-भाव की अवधारणा का वर्णन भगवद्गीता के अध्याय संख्या तीन, चार, पांच और तेरह में विस्तार से किया गया है। यहां पर स्पष्ट किया गया है कि सभी प्रकार के कार्य भौतिक प्रकृति और उसके गुणों द्वारा ही किये जाते हैं। मनुष्य का मन और शरीर भी भौतिक प्रकृति का ही हिस्सा हैं। इस प्रकार किसी की इंद्रियां, मन और बुद्धि उसके सभी कार्यों और उन कार्यों के परिणामों के लिए जिम्मेदार हैं। जीवात्मा कर्ता नहीं है। परन्तु अज्ञानवश, जीवात्मा स्वयं को प्रकृति के कृत्यों का कर्ता मानता है। शरीर और मन आदि के साथ अपनी पहचान के कारण वह अहम बन जाता है। आत्म-भाव से मोहित होकर जीव यह मानता है कि ‘मैं कर्ता हूं- मैं यह करता हूं, मैं वह करता हूं।’ शरीर होने के अहंकार और कर्ता होने के गौरव के कारण, जीवात्मा सांसारिक मामलों में उलझ जाता है। फलस्वरूप वह मन-शरीर द्वारा किए गये कार्यों से उत्पन्न होने वाले सुखों और दुखों से गुजरता है। दूसरे शब्दों में, वह इंद्रियों, मन, बुद्धि के माध्यम से जीवन के सुखों और दुखों का अनुभव करता है।
इस प्रकार, शरीर भौतिक कारणों और उनके प्रभावों के लिए जिम्मेदार है, और आत्मा उनसे उत्पन्न सुखों और दुखों को अनुभव करती है। जीवात्मा शरीर द्वारा किए गये कर्मों के अनुभवों का संग्रह करता रहता है। अनुभवों का ऐसा भंडार, जीवात्मा के अच्छे और बुरे जन्मों का कारण बनता है।
परन्तु जो व्यक्ति इन दोनों अर्थात आत्मा और प्रकृति के अंतर को जानता है, वह अपनी वास्तविक आध्यात्मिक पहचान के रूप में जागरूक हो जाता है ; और यह जान जाता है कि जीवात्मा के रूप में वह कार्यों का कर्ता नहीं है। वह तो केवल अनासक्त एवं निष्पक्ष साक्षी है। इस प्रकार, वह कर्तापन के अभिमान से मुक्त हो जाता है। चूंकि ऐसा मनुष्य अपने मन और शरीर को अलग देखता है, इसलिए वह अपने शारीरिक कार्यों का श्रेय स्वयं को नहीं देता। बाहरी तौर पर पूरी तरह कार्य में लगे रहने के बावजूद, वह सभी कार्यों को अंदरूनी तौर पर त्याग देता है। जब मनुष्य की बुद्धि आत्मा के प्रकाश से रोशन होती है, तब वह आत्मा और भौतिक प्रकृति के अंतर को समझ जाता है और कर्ताभाव के भ्रम से मुक्त हो जाता है।
ईश्वर की भूमिका के बारे में कहा गया है कि यद्यपि सृष्टिकर्ता और निर्वाहक के रूप में, सर्वोच्च भगवान सभी कार्यों की अदृश्य पृष्ठभूमि में है; फिर भी वह उन कामों का कर्ता नहीं है। दुनिया बनाने और बनाए रखने के कार्य उसको प्रभावित नहीं करते, क्योंकि वह अनासक्त है। जिस प्रकार लहरों के चलने से समुद्र की समग्र स्थिति परिवर्तित नहीं होती, उसी प्रकार विभिन्न जीवों की क्रियाओं का प्रभाव सर्वोच्च प्रभु पर नहीं पड़ता। विभिन्न कार्य उसकी अपरिवर्तनशीलता को प्रभावित नहीं करते।
मार्गदर्शक है परमेश्वर
सर्वव्यापी ईश्वर किसी के लिए कार्य नहीं करता। वह यह निर्देश भी नहीं देता कि अमुक व्यक्ति यह कार्य करेगा या नहीं करेगा। वह न तो कार्यों के परिणाम तय करता है, और न ही कर्मों के फलों को कर्मों के साथ मिलाता है। ये सब तो प्रकृति के नियमों, जो कि निष्पक्ष और अचूक हैं, से निर्धारित होते हैं। परन्तु जब कोई व्यक्ति अपने अज्ञान को दूर करने का प्रयास करता है, तो परमेश्वर उसे ज्ञान की रोशनी प्राप्त करने में सहायता जरूर करता है। वह मनुष्य को अच्छे कार्य अनासक्त ढंग से करने को प्रेरित करता है और इसमें मार्गदर्शन प्रदान करता है। व्यक्ति को ईश्वरीय सलाह मानने या न मानने की आजादी है। वह अपनी मर्जी के अनुसार पुण्य या पापकर्म करने के लिए स्वतंत्र है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी पसंद-नापसंद के अनुसार कार्य करता है ; और सभी परिणामों के लिए स्वयं जिम्मेदार है। इसलिए, अपने कष्टों के लिए कोई भी ईश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकता। कर्तापन की भावना का त्याग कर इस दुनिया के दुखों से मुक्ति प्राप्त करना व्यक्ति की स्वयं की जिम्मेदारी है।
अहंकार से मुक्ति के बाद आनंद
भगवद्गीता ने मनुष्य को अहंकार से मुक्त होने, अपनी चेतना को आत्मा में स्थिर करने और कर्तापन के सभी दावों को पीछे छोड़ते हुए पूरे जोश के साथ काम करने की सलाह दी है। जब व्यक्ति अपने आप को और अपने सारे कर्मों को भगवान के प्रति समर्पित कर देता है, तो उसके झूठे अहंकार से उत्पन्न हुआ कर्तापन का गर्व गायब हो जाता है और जीवात्मा को परमात्मा के साथ एकरूप होने का अहसास होता है। उसके सारे संदेह ज्ञान की शुद्धिकारक अग्नि में भस्म हो जाते हैं। ऐसी अमर अवस्था प्राप्त होने के पश्चात व्यक्ति अपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को इस समझ के साथ करता है कि वह केवल ईश्वर के हाथ में एक साधन है। जब व्यक्ति यह समझ जाता है कि केवल इंद्रियां, मन और बुद्धि ही सभी गतिविधियां करते हैं और वह जीवात्मा के तौर पर कुछ भी नहीं करता ; तब वह सांसारिक सुखों और दुखों से मुक्त हो जाता है। फिर, वह सुखद जीवन का आनंद लेता है।