प्राचीन काल में काशी नगरी में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्मे एक बालक को बचपन से ही पेड़-पौधों और औषधियों में गहरी रुचि थी। वह घंटों जंगल में घूमता और विभिन्न पौधों का अध्ययन करता। एक दिन जंगल में उसकी मुलाकात एक वृद्ध तपस्वी से हुई। तपस्वी ने देखा कि बालक के हाथ में एक दुर्लभ जड़ी-बूटी है। बालक ने बताया कि वह इसका उपयोग एक गरीब किसान की बीमार गाय के इलाज के लिए करने जा रहा है। तपस्वी ने पूछा, ‘तुम्हें कैसे पता चला कि यह जड़ी-बूटी उस गाय के लिए उपयोगी होगी?’ बालक ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, ‘गुरुदेव, मैंने देखा है कि जब पशु बीमार होते हैं, तो वे स्वयं ही कुछ विशेष पौधों की खोज करते हैं।’ बालक की प्रतिभा और करुणा से प्रभावित होकर तपस्वी ने उसे आयुर्वेद का ज्ञान देना शुरू कर दिया। वही बालक आगे चलकर ‘महर्षि धन्वंतरि’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। एक बार भयंकर महामारी के दौरान जब सभी चिकित्सकों ने हार मान ली, तब धन्वंतरि अमृत कलश लेकर गांव-गांव गए और लोगों का इलाज किया। उन्होंने कभी अमीर-गरीब में भेद नहीं किया। उन्होंने अपना सारा ज्ञान अपने शिष्यों को दिया और उन्हें सिखाया कि चिकित्सा केवल पेशा नहीं, बल्कि मानवता की सेवा का साधन है।
प्रस्तुति : देवेन्द्रराज सुथार