अमिताभ स.
उत्तरी दिल्ली स्थित गुरुद्वारा मजनू का टिल्ला और गुरुद्वारा नानक प्याऊ में, अपनी उदासियों के दौरान सन 1505 से 1510 के बीच, गुरु नानक देव जी रहे थे।
कहा जाता है- ‘जिथे बाबा पैर धरे, पूजा आसण थापण सोआ।’
इतिहास बताता है कि सन् 1783 में, मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के शासनकाल में, सरदार सूरमा बघैल सिंह ने अपने नेतृत्व में, 30,000 सिख फौज के साथ दिल्ली पर हमला बोला था। बेगम सुमरो के बीच-बचाव के चलते मुगल बादशाह ने दिल्ली में सिख गुरुओं से जुड़ी पांच जगहों की पहचान कर, वहां गुरुद्वारों के निर्माण की अनुमति दी थी। इनमें से नानक प्याऊ साहिब और मजनू का टिल्ला साहिब दो गुरुद्वारे शामिल हैं, जहां गुरु नानक देव जी के चरण पड़े।
उत्तरी दिल्ली में, खैबर पास के बगल की मैगजीन रोड से यमुना के किनारे की ओर जाएं, तो रिंग रोड पार सीध में ‘गुरुद्वारा मजनू का टिल्ला साहिब’ है। इतिहास के पन्ने पलटने पर पता चलता है कि मजनू का टिल्ला नामकरण सिकंदर लोदी (1489 से 1517) के कार्यकाल में हुआ। तब एक सूफी फकीर अब्दुल, जो ईरान से आया था, यमुना के किनारे स्थित इस टीले पर झोपड़ी में रहता था। वह अपनी किश्ती में बैठाकर मुफ्त में यमुना पार करवाता था। आस-पास के लोग उसे दीवाना आशिक मानते थे और उसका नाम मजनू रख दिया।
उस फ़क़ीर ने गुरु नानक देव जी की महिमा (वडियाई) सुनी थी। गुरु नानक देव जी ने 20 जुलाई, 1505 को अमृतवेले इस फकीर को दर्शन दिए थे। गुरु जी और फकीर के बीच सत्संग चल रहा था, तभी कुछ लोगों के रोने-धोने की आवाज़ आई। पता चला कि बादशाह के मृत हाथी के महावत रो रहे थे। गुरु जी ने हाथी को जीवित करने के लिए अरदास की, और मरा हुआ हाथी सचमुच जी उठा! बादशाह और पूरी संगत करिश्मे को देख दंग रह गए। बादशाह गुरु जी के चरणों में गिर पड़ा। गुरु जी 31 जुलाई, 1505 तक यहीं ठहरे। जाते समय, मजनू फकीर के सेवाभाव से प्रभावित होकर, गुरु नानक देव जी ने उसे वरदान दिया कि ‘यह स्थान तेरे नाम से जाना जाएगा, और तेरा नाम सदैव रहेगा’।
आज यही स्थान ‘गुरुद्वारा मजनू का टिल्ला’ के नाम से प्रसिद्ध है और यहां गुरु नानक देव जी के शब्दों की याद में एक बड़ी आस्था का केंद्र बना है।
इतिहास में यह भी दर्ज है कि गुरु नानक देव जी सुलतान सिकंदर लोदी के शासनकाल (1506 से 1510) के दौरान दिल्ली पधारे थे। इस समय उन्होंने दिल्ली के अलावा जीटी रोड पर पुरानी सब्जी मंडी के नजदीक एक बाग में कुछ समय बिताया था। शाही सड़क होने के कारण, कई मुसाफिर वहां से गुजरते थे। गुरु नानक देव जी ने मुसाफिरों की प्यास बुझाने के लिए कुएं के पास एक प्याऊ का इंतजाम किया। वह स्वयं मुसाफिरों को पानी पिलाते, लंगर देते और अपनी वाणी का प्रवाह करते। धीरे-धीरे दिल्लीवाले भी गुरु साहिब के दर्शन के लिए आने लगे। गुरु जी के दर्शन से लोगों के तन और मन को शांति मिलती थी।
यहां पर गुरु नानक देव जी ने इलाही कीर्तन किया और इसी स्थल पर एक पक्का प्याऊ बनवाया गया। पूजा-अर्चना भी होने लगी, और यह स्थान ‘प्याऊ साहिब’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। बाद में इसे ‘नानक साहिब’ के नाम से भी जाना जाने लगा। आज यह गुरुद्वारा शीशगंज, बंगला साहिब, रकाब गंज और मजनू का टिल्ला गुरुद्वारे के साथ दिल्ली के बड़े और ऐतिहासिक गुरुद्वारों में गिना जाता है।
गुरुद्वारे में अभी भी पानी पिलाने का सिलसिला जारी है। लोग माथा टेकते हैं और प्याऊ से अमृतपान करते हैं। गुरुपूरब के अवसर पर निकलने वाला दिल्ली का ऐतिहासिक नगर कीर्तन यहीं पर समाप्त होता है।