विश्वनाथ सचदेव
शेक्सपियर का एक चर्चित नाटक है मैक्बेथ। स्कॉटलैंड के राजा के दो जनरल उसके खिलाफ हैं। लेडी मैक्बेथ इनमें से एक की पत्नी है। ये लोग मिलकर राजा की हत्या का षड्यंत्र रचते हैं, पर मैक्बेथ हत्या के लिए साहस नहीं जुटा पा रहा। पत्नी उसकी मर्दानगी को चुनौती देती है, उसे कायर, नामर्द और न जाने क्या-क्या कहती है और अंततः मैक्बेथ अपने आप को प्रमाणित करने के लिए राजा की हत्या के लिए तैयार हो जाता है। लेकिन लेडी मैक्बेथ की आत्मा उसे धिक्कारती है और वह आत्महत्या कर लेती है।
हाल ही में यह लेडी मैक्बेथ अचानक भारत के मीडिया में चर्चा का विषय बन गयी थी। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस ने राज्य की मुख्यमंत्री की तुलना लेडी मैक्बेथ से की है। यह तो नहीं पता कि ऐसी तुलना करके वह क्या बताना-जताना चाहते थे, पर सवाल उठ रहे हैं कि कोई राज्यपाल इस तरह की बात कैसे कह सकता है। राज्यपाल और राज्य-सरकार के रिश्तों की खटास किसी से छिपी नहीं है। समय-समय पर सी.वी. आनंद बोस अपने राज्य की मुख्यमंत्री की आलोचना करते रहे हैं। अब एक युवा डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के मामले में ममता बनर्जी की सरकार कटघरे में है। यह सही है कि ममता के विरोधी इस स्थिति का राजनीतिक लाभ उठाना चाह रहे हैं, पर सही यह भी है कि इस निंदनीय प्रकरण में ममता बनर्जी बचाव की मुद्रा में हैं– विरोधी दल तो राज्य सरकार की आलोचना कर ही रहे हैं, राज्यपाल भी खुलकर पश्चिम बंगाल की सरकार की आलोचना में लगे हैं। उनका कहना है कि राज्य की सरकार अपना कर्तव्य निभाने में असफल रही है ‘और राज्य की जनता की भावनाओं को नहीं समझ रही।’
यहां तक तो बात फिर भी समझ में आती है, पर जब राज्यपाल यह कहते हैं कि ‘ममता बनर्जी लेडी मैक्बेथ हैं और उनके साथ कोई मंच साझा नहीं करूंगा’ तो मामला गंभीर बन जाता है। राज्यपाल ने अपने इस कदम को राज्य की जनता की भावनाओं के साथ खड़े होना बताया और कहा कि वे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का ‘सामाजिक बहिष्कार’ करेंगे। उन्होंने साफ शब्दों में कहा है कि उनकी प्रतिबद्धता राज्य की जनता और आर.जी. कर अस्पताल की ‘डॉ. अभया’ के परिवार के प्रति है और वे विरोध प्रदर्शन कर रहे डाक्टरों के साथ हैं। उन्होंने यह भी कहना ज़रूरी समझा कि उनकी प्रतिबद्धता भारत के संविधान के प्रति है।
पता नहीं राज्य के मुख्यमंत्री की तुलना लेडी मैक्बेथ से करके और राज्य सरकार को अपने कर्तव्य-पालन में असफल सिद्ध होना बताकर वे किस ओर इशारा कर रहे हैं। हमारे संविधान में राज्यपाल के पद की व्यवस्था करके संविधान-निर्माताओं ने एक तरह से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एक सेतु बनाया था। अपेक्षा की जाती है कि राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि की तरह काम करेंगे और राज्य की स्थिति के बारे में केंद्र को अवगत भी कराते रहेंगे। राज्यपालों की व्यवस्था करते हुए यह अपेक्षा भी की गयी थी कि राज्यपाल राज्य सरकार के परामर्शदाता भी होंगे। इसके साथ ही यह भी मान कर चला गया था कि इस पद पर सुयोग्य और रोज़मर्रा की दलगत राजनीति से पृथक रहने वाले व्यक्तियों को नियुक्त किया जायेगा।
पिछले 75 सालों का अनुभव यह बताता है कि राज्यपालों की नियुक्ति में केंद्र में सत्तारूढ़ दल के हितों को ही देखा जाता है। अक्सर ऐसे लोगों को इस पद पर बिठाया गया है जो या तो उम्रदराज हो गये थे या जिन्हें केंद्र में सत्तारूढ़ पक्ष ने अपने हितों के लिये उचित समझा है। आज़ादी पाने के कुछ साल बाद तक तो परंपरा यह भी थी कि राज्यपाल की नियुक्ति के समय संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श भी कर लिया जाता था। तब राज्य सरकार और राज्यपाल में टकराव की स्थितियां भी कम आती थीं। लेकिन केंद्र और राज्यों में अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें बनने के बाद स्थिति बदल गयी। राज्यों में राज्यपाल को केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में देखा जाने लगा और दुर्भाग्य से कुछ राज्यपालों का व्यवहार भी यह बताने लगा कि वे केंद्र सरकार के हितों को अधिक महत्व दे रहे हैं। कुछ राज्यपालों पर केंद्र सरकार के इशारों पर काम करने के आरोप भी लगे। कई बार ऐसी स्थितियां बन गयीं कि यह सवाल भी उठा कि राज्यपाल की आवश्यकता ही क्या है?
निश्चित रूप से यह अच्छी स्थिति नहीं है। अब तो अक्सर ऐसे मामले सामने आ रहे हैं कि राज्यपाल के कुछ करने, या कुछ न करने का परिणाम राज्यों की जनता को भुगतना पड़ रहा है। ऐसे उदाहरण भी हैं जिनमें राज्य सरकारों द्वारा स्वीकृति के लिए भेजे गये विधेयकों या अन्य मामलों में राज्यपाल के कुछ न करने से काम रुका रह जाता है।
बहरहाल, यह सब बातें अपनी जगह हैं, लेकिन देश को इस बारे में तो सोचना ही चाहिए कि राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच तनाव क्यों उत्पन्न हो और कैसे इस तनाव को कम किया जा सकता है, रोका जा सकता है।
राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल जैसे सांविधानिक पदों पर बैठे लोगों से एक आदर्श व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। किसी मुद्दे पर मतभेद होने का मतलब किसी प्रकार की शत्रुता नहीं माना जाना चाहिए। आज पश्चिम बंगाल में जो कुछ हो रहा है, वह निश्चित रूप से चिंता का विषय है किसी भी राज्य में ऐसी स्थितियों का बनना अपने आप में दुखद घटनाक्रम का विषय भी है। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल को पूरा अधिकार है कि वे वहां उत्पन्न स्थितियों पर अपनी चिंता प्रकट करें। सच कहें तो यह उनका कर्तव्य भी है। इसी कर्तव्य का एक पक्ष यह भी है कि वह स्थितियों में सुधार के प्रयासों का हिस्सा बनें। लेकिन, जिस तरह राज्यपाल ने राज्य की निर्वाचित मुख्यमंत्री की तुलना लेडी मैक्बेथ से की है, वह अनुचित की परिभाषा में ही आती है। राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री का ‘सामाजिक बहिष्कार’ करने की घोषणा भी ग़लत संकेत ही देती है।
हमारी सांविधानिक व्यवस्था के अनुसार राज्यपाल न तो राज्य में केंद्र का एजेंट है और न ही केंद्र सरकार का जासूस। उसकी भूमिका राज्य में शासन चलाने में सहयोग देने वाले की है। उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह अपने विवेक और अनुभव का उपयोग करते हुए राज्य सरकार को सलाह देने का काम भी करेगा। कुल मिलाकर यह भूमिका एक सलाहकार की है। राज्य सरकार और राज्यपाल में एक विवेकपूर्ण संतुलन ही स्थिति को बेहतर बना सकता है। इसी संतुलन का तकाज़ा है कि राज्यपाल इस तरह के बयानों से बचें जैसा पश्चिम बंगाल के महामहिम ने लेडी मैक्बेथ का उदाहरण देकर प्रस्तुत किया है। मुख्यमंत्री के सामाजिक बहिष्कार की बात कहना भी राज्यपाल की मर्यादा के अनुकूल नहीं लगता। इस तरह की स्थितियों का बनना सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।