सहीराम
एक जमाना था जब युवा लड़के-लड़कियां अपने इश्क को आजमाने के लिए यह खेल खेला करते थे कि एक गुलाब का फूल लिया और उसी पंखुड़ियों को तोड़ते हुए यह मंत्र जपने लगे-ही ऑर शी लव्ज में, ही ऑर शी लव्ज मी नॉट। यह तब की बात है जब इश्क कमीना नहीं हुआ था और प्रेम प्रदर्शन में चाकू और छुरों का प्रवेश नहीं हुआ था। हालांकि मार कटारी मर जाना तब भी था। खैर, अभी यह खेल कांग्रेस को लेकर खेला जा सकता है और इसे कांग्रेस और भाजपा दोनों ही खेल सकते हैं। कमलनाथ प्रकरण के बाद से इस खेल को आजमाना थोड़ा जरूरी-सा हो गया है।
भाजपा वाले इसे इस तरह खेल सकते हैं कि फलां नेता आ रहा है कि नहीं आ रहा है और कांग्रेसी इसे इस तरह खेल सकते हैं कि फलां नेता जा रहा है कि नहीं जा रहा है। वैसे तो अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो भी किया जा सकता है। कुछ कांग्रेसी नेता इस इंतजार में बैठे हैं कि बुलावा नहीं आ रहा। बुलावा आए तो जाएं और पार्टी उनके जाने का इंतजार करते-करते ऊंघने लगती है। कुछ शादी-ब्याहों में जीमने वाले उस्तादों की तरह होते हैं, जो बिना बुलाए पहंुच जाते हैं। तर माल सामने हो तो बुलावे का इंतजार कौन करे।
पर अब शादी-ब्याह वाले भी सयाने हो गए हैं और कार्ड दिखाने की जिद करने लगते हैं। देखो क्या जमाना आ गया। वरना तो जी पहले तो शादी-ब्याह में लोग रूठा भी बहुत करते थे। फिर उन्हें मनाया भी जाता था। विश्वास भी रहता था कि रूठा है तो मना लेंगे। रूठना तो आजकल भी होता होगा, पर मनाता कोई नहीं। राहुलजी ने तो जैसे यह गाना रट ही लिया है कि जाना है तो जाओ मनाएंगे नहीं। खैर जी, कमलनाथजी ने साबित किया कि नाम के नाथ हो जाने से कमल हाथ नहीं आता। हाथ में सिर्फ हाथ ही रह जाता है। वह भी खाली। लेकिन उन्होंने यह दिखा दिया कि दुविधा क्या चीज होती है-जाऊं कि न जाऊं। आज जाऊं कि कल जाऊं। दो दिन रुक जाऊं या अभी चला जाऊं। अकेला जाऊं कि बेटे को साथ ले जाऊं। अकेले बेटे को भेज दूं या मैं भी साथ जाऊं। अच्छा अकेला ही चला जाता हूं। नहीं चलो बेटे को भी साथ ले लेता हूं।
अभी एक दुविधा खत्म नहीं होती कि दूसरी दुविधा आ जाती है-प्रेस को क्या कहूं। कहूं कि न कहूं। कुछ भी बोल दूं या कुछ भी न बोलूं। कयास लगने दूं या स्थिति स्पष्ट कर दूं। पर स्पष्ट करूं तो क्या स्पष्ट करूं। अगर टीवी सीरियल निर्माता सुझाव मानें तो इस दुविधा पर पचास हजार एपिसोड का एक धारावाहिक तो आसानी से बनाया ही जा सकता है। नहीं क्या?