प्रदीप कुमार दीक्षित
टीवी चैनल पर मजमा जम चुका है। एक इस पक्ष का, दूसरा दूसरे और तीसरा तीसरे पक्ष का, एक विश्लेषक, एक निष्पक्ष, एक पत्रकार, एक बेकार महानुभाव अपनी-अपनी सीटें संभाल चुके हैं। शब्दों के संग्राम में कूदने के लिए बस एंकर के इशारे का इंतजार कर रहे हैं। एंकर इन्हें आज की बहस के बारे में विस्तार से बता रहा है। एंकर सबसे पहले इस पक्ष के बहसवीर को बोलने की हरी झंडी बतलाता है। इस पर हो-हल्ला मचता है कि आप सबसे पहले इस पक्ष को ही बोलने की अनुमति देते हो। एंकर मशक्कत के बाद बाकी बहसवीरों को शांत करता है कि आपको भी मौका मिलेगा। इस पक्ष का बहसवीर मैदान जीत लेने के भाव से अपने तर्क-कुतर्क देना शुरू करता है। दूसरे पक्ष का बहसवीर बीच में बोलने की कोशिश करता है लेकिन उसे चुप करा दिया जाता है कि आपकी बारी आायेगी।
अपनी बारी आने पर उस पक्ष का बहसवीर अपनी बात को सोलह आने सच बता रहा है। तर्क की गाड़ी पटरी से उतर चुकी है। अपने पक्ष में कुतर्क दिए जा रहे हैं। तरह-तरह की मुखमुद्राएं बनाने, बांहें चढ़ाने और अपशब्दों की बौछार होने लगी हैं। इस आपाधापी में कुछ बहसवीर बोलने से ही वंचित रह गये हैं।
दो देशों के बीच युद्ध, एक देश में गृहयुद्ध, आतंकी हमला, आतंकियों पर कार्रवाई, घोटाला, राजनीतिक दल, चुनाव, मतदान, नेता, हॉलीवुड, बॉलीवुड से लेकर रामदुलारी मैके क्यों गई या मैके से क्यों लौट आई, गंगाराम कुंवारा क्यों रह गया तक बहस का मुद्दा हो सकता है। एक मुद्दा माफिया के मारे जाने का है। इस पर बहस की गोटियां बिछी हुई हैं। बहसवीर योद्धा अपने-अपने शब्दबाण चला रहे हैं। उस माफिया ने कितने अपराध किए और उसके खिलाफ कितने मामले दर्ज हैं, गवाहों के क्या हाल हैं, यह बहस का विषय है ही नहीं। बहस माफिया की जाति पर हो रही है। चैनल पर बैठे बहसवीर उसके मारे जाने को अपने-अपने समीकरणों को देखते हुए तर्क-कुतर्क कर रहे हैं। बाहुबली को रॉबिनहुड बता रहे हैं। उसे महिमामंडित कर रहे हैं।
चुनाव के समय दृश्य और मजेदार हो जाता है। छुटभैये बहसवीर बड़े-बड़े नेताओं पर ऐसे बोलते हैं कि वे नेता नहीं बल्कि उनकी गली के आवारा लड़के हों। ऐसे चुनौती देते हैं कि यदि वे सामने आ जाएं तो उनके साथ मारपीट कर देंगे। बहस में आक्रोश, बड़बोलापन, आक्रामकता, भावुकता, नाटक-नौटंकी आदि सभी दिखाई देते हैं। यह रोज-रोज चलने वाला सिलसिला है।