देश की युवा पीढ़ी के बहुत कम सदस्यों को मालूम होगा कि 1947 में विभाजन के बाद अस्तित्व में आये पाकिस्तान का कौमी तराना उस वक्त के उर्दू के लाहौर निवासी बेहद मकबूल हिन्दू शायर जगन्नाथ आजाद ने रचा था। हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य के उन दिनों में निस्संदेह, यह बहुत बड़ी बात थी कि आजाद ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की इस इच्छा का आदर किया कि यह तराना कोई बड़ा गैर-मुस्लिम और धर्मनिरपेक्ष हिन्दू शायर ही रचे, मुस्लिम नहीं।
दरअसल, इस तरह जिन्ना दुनिया को यह संदेश देना चाहते थे कि पाकिस्तान बना भले ही धर्म के नाम पर है, उसमें धार्मिक भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं होगी। लेकिन जगन्नाथ आजाद का उक्त तराने की रचना के बाद का पाकिस्तानी कृतघ्नता के बीच बीता जीवन इस बात का मुखर गवाह है कि पाकिस्तान बनाने के लिए हद से गुजर जाने की जिन्ना की गलती उनके वक्त में उनके संदेश पर भारी पड़ती ही रही। दरअसल, पाकिस्तान जब बनना तय हो गया तो जिन्ना ने अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के मुश्किल से हफ्ते भर पहले, नौ अगस्त, 1947 को रेडियो लाहौर में काम करने वाले एक शख्स की मार्फत आजाद से इस तराने की रचना का आग्रह किया तो यह ताकीद भी की थी कि उनके पास उसको मुकम्मल करने के लिए केवल पांच दिन हैं।
यह शख्स आजाद का दोस्त था और चाहता था कि भावी पाकिस्तान की सबसे बड़ी शख्सियत की ओर से दिये गये इस सुनहरे मौके को वे बिना हील-हुज्जत फौरन से पेश्तर स्वीकार कर लें। दोस्त की निगाह में यह बहुत बड़ी बात थी कि लाहौर में मौलाना ताजवर नजीबाबादी, सैयद आबिद अली ‘आबिद’, सूफी गुलाम मुस्तफा ‘तबस्सुम’, अब्दुल मजीद ‘सालिक’, हफीज जालंधरी और इन सबसे ऊपर फैज अहमद फैज जैसे बड़े व नामचीन शायरों के रहते जिन्ना पाकिस्तान के कौमी तराने के सर्जक के तौर पर इतिहास में नाम दर्ज कराने का पहला मौका आजाद को देना चाहते हैं।
फिर उन्होंने जो तराना लिखा, उसके बोल थे, ‘ऐ सरजमीन-ए-पाक! जर्रे हैं तेरे आज सितारों से ताबनाक! रौशन है कहकशां से कहीं आज तेरी खाक!!’
कहते हैं कि जिन्ना को तराने की ये पंक्तियां इतनी पसंद आयीं कि उन्होंने फौरन उसे मंजूरी दे दी। 14 अगस्त, 1947 की रात यह पहली बार रेडियो पाकिस्तान से प्रसारित हुआ और जब तक जिन्ना इस दुनिया में रहे, पाकिस्तान का कौमी तराना बना रहा। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद संकीर्णतावादी पाकिस्तानी शासकों ने नये कौमी तराने की तहरीक शुरू कर दी। क्योंकि यह तथ्य उन्हें रास नहीं आ रहा था कि मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान एक गैर-मुस्लिम शायर के रचे तराने को अपना कौमी तराना माने।
बंटवारे के बाद के बेहद खराब हालात में लाहौर में जीना दूभर हो जाने के बाद ‘धर्मनिरपेक्ष’ आजाद को अपने प्यारे शहर का मोह छोड़कर भारत चले आना पड़ा था। उन्हें इस आधार पर भी सुरक्षा नहीं मिल पाई थी कि वे उस धर्माधारित राष्ट्र के कौमी तराने के रचयिता हैं!
लेकिन धर्मांधताएं अपने असली रंग में आईं तो उनके दबाव में बाद के पाक शासकों ने अपने संस्थापक की, जिन्हें वे सम्मानपूर्वक ‘कायदेआजम’ कहा करते थे, आखिरी सांस के साथ ही भेदभाव रहित पाकिस्तान का रास्ता त्याग दिया। उन्होंने हफीज जालंधरी से नये कौमी तराने की रचना करवायी और उसे आजाद के तराने का बदल बना दिया। वैसे इसके बावजूद आजाद का तराना 1954 तक न सिर्फ रेडियो पाकिस्तान से प्रसारित होता रहा बल्कि पाकिस्तान के सरकारी आयोजनों में भी बजाया जाता रहा।
2004 में दिल्ली में 24 जुलाई को आजाद के देहांत के बाद पाकिस्तान में उनको लेकर नये सिरे से बहस शुरू हुई तो उनका एक इंटरव्यू सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘उक्त तराना मैंने लिखा तो पूरा उपमहाद्वीप फसाद की चपेट में था। मैं लाहौर में रहता था और वहां की एक साहित्यिक पत्रिका से जुड़ा था। मेरे तमाम रिश्तेदार हिंदुस्तान जा चुके थे। पर मेरे लिए लाहौर छोड़ना बहुत तकलीफ देने वाली बात थी। लिहाजा मैंने वहीं ठहरने का फैसला किया। लेकिन बाद में दोनों तरफ वहशत के कारण हालात हद से ज्यादा खराब होते चले गये। तब मेरे दोस्तों ने बुझे मन से मुझसे कहा कि अब मुझे हिंदुस्तान हिजरत कर जाना चाहिए।’
आजाद का जन्म पांच दिसंबर, 1918 को ईसाखेल में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। आजाद के पिता तिलोकचंद ‘महरूम’ भी उर्दू के बड़े उस्ताद थे। जन्मस्थली ईसाखेल व क्लोरकोट में आरम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद आजाद ने मियांवाली के राममोहन राय हाई स्कूल से 1933 में मैट्रिक और लाहौर के गोर्डन कालेज से 1937 में बीए और पंजाब विश्वविद्यालय से 1944 में फारसी में एमए किया था। 1947 में वे लाहौर के डीएवी कालेज में पढ़ाते थे और ‘जयहिंद’ नाम की एक साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक मंडल में भी शामिल थे। बंटवारे के बाद भी वे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के शायर बने रहे और लाहौर, कराची, रावलपिंडी, ढाका व चटगांव आदि में समय-समय पर आयोजित होने वाले मुशायरों में आते-जाते रहे। 24 जुलाई, 2004 को 85 साल की उम्र में उन्होंने दिल्ली में आखिरी सांस ली तो इतिहास ने अपने किसी पृष्ठ पर लिखा-धर्माधारित राज्य किसी के नहीं होते। न अपनों के और न बेगानों के।