राजस्थान के किशनगढ़ की विश्व प्रसिद्ध चित्रशैली ‘बणी-ठणी’ का नाम आज कौन नहीं जानता? लेकिन कम लोग जानते हैं कि किशनगढ़ की यह चित्रशैली जो रियासत काल में शुरू हुई थी, का नाम ‘बणी-ठणी’ क्यों और कैसे पड़ा? राजस्थान के इतिहास में राजा-रानियों आदि ने ही नहीं बल्कि तत्कालीन शाही परिवारों की दासियों ने भी अपने अच्छे-बुरे कार्यों से प्रसिद्धि पायी है। ‘बणी-ठणी’ राजस्थान के किशनगढ़ रियासत के तत्कालीन राजा सावंत सिंह की दासी व प्रेमिका थी।
राजा सावंत सिंह सौंदर्य व कला की कद्र करने वाले थे। वे खुद बड़े अच्छे कवि व चित्रकार थे| उनके शासन काल में बहुत से कलाकारों को आश्रय दिया गया| ‘बणी-ठणी’ भी सौंदर्य की अद्भुत मिसाल होने के साथ ही उच्च कोटि की कवयित्री थीं। ऐसे में कला और सौंदर्य की कद्र करने वाले राजा का अनुग्रह व अनुराग इस दासी के प्रति बढ़ता गया। राजा सावंत सिंह व यह गायिका दासी दोनों श्रीकृष्ण भक्त थे। राजा की अपनी और आसक्ति देख दासी ने भी राजा को कृष्ण व खुद को मीरा मानते हुए राजा के आगे अपने आपको पूरे मनोयोग से पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया| उनकी आसक्ति जानने वाली प्रजा ने भी उनके भीतर कृष्ण-राधा की छवि देखी और दोनों को कई अलंकरणों से नवाजा जैसे- राजा को नागरीदास, चितवन, चितेरे,अनुरागी, मतवाले आदि तो दासी को भी कलावंती, किर्तिनिन, लवलीज, नागर रमणी, उत्सव प्रिया आदि संबोधन मिले वहीं रसिक बिहारी के नाम से वह खुद कविता पहले से ही लिखती थी।
एक बार राजा सावंत सिंह ने इसी सौंदर्य और रूप की प्रतिमूर्ति दासी को रानियों जैसी पोशाक व आभूषण पहनाकर एकांत में उसका एक चित्र बनाया। और इस चित्र को राजा ने नाम दिया ‘बणी-ठणी।’ इसका मतलब होता है ‘सजी-संवरी’, ‘सजी-धजी’। राजा ने अपना बनाया यह चित्र राज्य के राज चित्रकार निहालचंद को दिखाया। निहालचंद ने राजा द्वारा बनाए उस चित्र में कुछ संशोधन बताए। संशोधन करने के बाद भी राजा ने वह चित्र सिर्फ चित्रकार के अलावा किसी को नहीं दिखाया। और चित्रकार निहालचंद से वह चित्र अपने सामने फिर से बनवाकर उसे अपने दरबार में प्रदर्शित कर सार्वजनिक किया। इस सार्वजनिक किये चित्र में भी बनते समय राजा ने कई संशोधन करवाए व खुद भी संशोधन किये। आज किशनगढ़ की यह ‘बणी-ठणी’ चित्रकला शैली पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। इसी तरह राजसी परिवारों की दासियों ने साहित्य में भी बहुत अच्छी रचनाएं दीं।
साभार : ज्ञानदर्पण डॉट कॉम