एक महीने से अधिक हो चला जब कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में एक प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या की घटना हुई थी। इस किस्म के जघन्य कांड ने , वह भी एक सरकारी मेडिकल कॉलेज के अंदर, कोलकाता शहर या यूं कहें कि संपूर्ण पश्चिम बंगाल को झकझोर कर रख दिया। कोई हैरानी नहीं कि युवा डॉक्टर, छात्र, आम महिला-पुरुष और सांस्कृतिक अभिजात्य वर्ग, इनके स्वतःस्फूर्त सामाजिक आंदोलन ने काफी ‘लोकप्रिय’ रहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हिलाकर रख दिया है। सरकारी मेडिकल कॉलेजों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और आरोपियों की राजनीतिक पहुंच की कहानियां, प्रशिक्षु डॉक्टरों की सुरक्षा और सम्मान को खतरे का मुद्दा उजागर हुआ। बात जब निष्पक्ष जांच की आई तो राज्य सरकार पर भरोसे की कमी देखी गई। मुख्यमंत्री के लिए इस ‘वैधता संकट’ से उबरना आसान नहीं होगा।
हमने इस आंदोलन के सकारात्मक पहलुओं पर भी गौर किया है : प्रशिक्षु डॉक्टरों का अपनी समस्याओं के लिए लड़ने पर दृढ़ निश्चयी होकर डटे रहना और विरोध करने का उत्सव सरीखा स्वरूप, जिसमें आम नागरिक सड़कों पर उतर रहे थे, देर रात तक सार्वजनिक स्थानों पर जमे रहकर ‘न्याय’ के गीत गा रहे थे। इसके अलावा, इस जनांदोलन को मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के सीधे प्रभाव से बचाने का प्रयास संभवतः दर्शाता है कि ‘राजनीति’ विशेषकर, जिस किस्म की पेशेवर राजनेता कर रहे हैं, इसने हमारे वक्त में अपने लिए एक बुरा अर्थ अर्जित कर लिया है।
हालांकि, तथ्य यह भी है कि इस किस्म के आंदोलन ज्यादा लंबा खिंचते नहीं। सीबीआई अपने निष्कर्षों को उजागर करेगी, सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला सुनाएगी, राज्य सरकार ने डॉक्टरों से समझौता किया, दोषियों को दंडित किया जाएगा, और कुछ -जिनमें मुख्यमंत्री भी शामिल हैं– अपराधी को मृत्युदंड देने का शोर मचाएंगे। फिर, सब कुछ पहले की भांति ‘सामान्य’ हो जाएगा! संभवतः, जो युवा डॉक्टर जो आज विरोध कर रहे थे, इनमें कुछ ऐसे होंगे जो ‘सांसारिक’ चीजों को अधिक प्राथमिकता देना शुरू कर देंगे, और आखिरकार किसी कॉर्पोरेट या निजी अस्पतालों का हिस्सा बनकर अपने अमीर ग्राहकों को एक वस्तु के रूप में ‘अच्छा स्वास्थ्य’ बेचते नज़र आयेंगे। और कोलकाता की गलियों में मुक्ति के गीत गाने वाला सांस्कृतिक अभिजात्य वर्ग भी अपने अनन्य कार्यक्षेत्रों में वापस रम जाएगा। इस बीच, हम बलात्कार की एक और कहानी के बारे में सुनेंगे… मत भूलें कि हमने अपने समाज में यौन हिंसा को लगभग रोजाना की सामान्य घटना बना डाला है।
वार्षिक राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, 2017 से 2022 के बीच, भारत में कुल 1.89 लाख बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। लेकिन वर्गों में बंटे और जाति-केंद्रित समाज से पीड़िता की परवाह की आस कौन करे, विशेष तौर पर यदि वह महिला एक वंचित समाज से, कोई घरेलू सहायिका या फिर किसी गुमनाम गांव की स्कूली छात्रा हो। तब कोई सामाजिक आंदोलन नहीं होगा, न ही कोई कोलकाता या दिल्ली की गलियों में लैंगिक न्याय के गीत गाएगा।
वास्तव में यदि हम इस सड़ांध का विरोध और यौन हिंसा के वायरस से यथोचित रूप से मुक्ति हेतु एक समझदार समाज की ओर बढ़ने की कोशिश करना चाहते हैं, तो हमें ‘विषाक्त मर्दानगी’ नामक विकृति का मुकाबला करने के लिए एक और आंदोलन में हिस्सा लेने की जरूरत होगी- मानसिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक। खैर, हमारे परिवारों में, लड़के इस मान्यता के साथ बड़े होते हैं कि उन्हें दबंग, सख्त और बहादुर होना चाहिए। हालांकि, ‘विषाक्त मर्दानगी’ का जीवन को पुष्टि देने वाले गुण जैसे कि साहस, आत्मविश्वास और आंतरिक शक्ति से कोई लेना-देना नहीं है। इसके बजाय, यह दूसरों को नुकसान पहुंचाने में परपीड़क आनंद पाने वाली है। जिसमें सहानुभूति और देखभाल नदारद हैं। यह हिंसा का महिमामंडन करती है और यौन आक्रामकता को बढ़ावा देती है।
जैसा कि सामाजिक मनोवैज्ञानिक समझाते हैं, यह ‘सामाजिक रूप से प्रतिगामी मर्दानगी का स्वरूप’ है जिससे ग्रस्त व्यक्ति दूसरे पर हावी होने की ललक, स्त्री-सम्मान का जरा मोलन समझना, समलैंगिकता-विरोध और बेतहाशा हिंसा का चाव रखता है। ‘विषाक्त पुरुषत्व’ के ज़हर के बिना बलात्कार की कल्पना तक करना मुश्किल है– महिला को महज एक वस्तु के रूप में लेने का अंतिम तरीका या यौन सुख की खातिर एक निष्प्राण खिलौने में बदलना। यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि ‘विषाक्त पुरुषत्व’ के मनोविज्ञान को अक्सर युद्ध, सैन्यवाद, अति-राष्ट्रवाद, अश्लील स्वरूप वाले प्रतिस्पर्धी ‘मर्दाना’ खेल और विभाजनकारी सांप्रदायिकता में आनंद बनाने के माध्यम से उभारा एवं प्रोत्साहित किया जाता है।
हां, यह भी एक तथ्य है कि संपूर्ण इतिहास में अक्सर यौन हिंसा का उपयोग दुश्मन के लोगों को अपमानित करने, वश में लाने और आतंकित करने के लिए एक हथियार के रूप में बरतने का वर्णन है। उदाहरणार्थ, जैसा कि कई शोधों का भी निष्कर्ष है, बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन के दौरान पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा 200,000 से 400,000 स्थानीय महिलाओं का यौन उत्पीड़न किया गया था। भारत-पाक विभाजन और उसके परिणामस्वरूप सांप्रदायिक घृणा पर एक गहरी नज़र डालने से पता चलता है कि सीमा के दोनों ओर महिलाओं का यौन उत्पीड़न हुआ था।
इसी तरह, प्रचलित संस्कृति उद्योग पूरी तरह से स्त्री-द्वेषी सोच से मुक्त नहीं है। पोर्न साहित्य का व्यापक प्रसार, जिसमें महिलाओं का वस्तुकरण, और तात्कालिक यौन सुख की इच्छा से मदमस्त क्रूर पुरुषत्व का महिमामंडन किया जाता है। नि:संदेह, महिलाओं के निरंतर अपमान और अवमानना जारी रहने के कई कारण हैं। इसलिए, कोई हैरानी नहीं है कि ‘एनिमल’ जैसी फिल्म 2023 की सबसे अधिक कमाई करने वाली हिंदी फिल्मों में एक रही, भले ही स्त्री-द्वेष एवं ‘विषाक्त मर्दानगी’ और अत्यधिक हिंसा के चित्रण के लिए इसकी कड़ी आलोचना की गई हो। तभी तो शोर-शराबा पसंद युवाओं को– यहां तक कि हमारे स्कूल-कॉलेजों में– ‘मैं हूं बलात्कारी’ जैसे लचर गीतों पर झूमते देखना मुश्किल नहीं हैं।
वास्तव में, ‘विषाक्त पुरुषत्व’ विकृति का मुकाबला करना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए एक सतत आंदोलन की आवश्यकता है- संभवतः, हमारे स्कूलों और परिवारों में एक मौन आंदोलन की। इस मुहिम को बढ़ावा देने के लिए हमें समाजीकरण और शिक्षा के एक क्रांतिकारी सतत अभ्यास की जरूरत होगी। हमें यह धारणा छोड़नी पड़ेगी कि ‘लड़के तो लड़के ही होते हैं’। इसके बजाय, लड़कों को सीखना और आत्मसात करना होगा कि एक आक्रामक/पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विपरीत समाज में ‘स्त्री’, यहां तक कि ‘स्त्रीत्व’ गुणों, सहानुभूति और देखभाल की नैतिकता, संवेदनशीलता और दयालुता जैसे गुणों का संवर्धन कैसे करना है। इसी तरह, बचपन से ही लड़कियों को यह सिखाना शुरू कर दें कि वे महज ‘गुड़िया’ नहीं हैं, इसकी बजाय, वे शारीरिक रूप से मजबूत, साहसी और अपने जीवन पथ को आकार देने में सक्षम हैं। तभी लैंगिक समानता और वास्तविक न्याय के बारे में सोचना संभव होगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं?
लेखक समाजशास्त्री हैं।