आसमा सलीम
इमरोज़ से मेरी पहली मुलाक़ात 1991 में हुई थी। मैं अमृता प्रीतम का इंटरव्यू करने गई थी। वह नवंबर या दिसम्बर की कोई सर्द शाम थी जब मैं हौज़ ख़ास के उनके घर पहुंची। उस रात जब तवील गुफ्तगू के बाद मैं अमृता के कमरे से निकली और इमरोज़ मुझे दरवाज़े तक छोड़ने आए तो बातों-बातों में सीढ़ियां उतरते हुए मैंने उन्हें बशीर बद्र का ये शे’र सुनाया, ‘कोई फूल-सा हाथ कांधे पे था, मेरे पांव शोलों पे जलते रहे।’ उस मुलाक़ात के बाद अमृता से तो मुलाक़ातों का सिलसिला चल ही निकला, इमरोज़ के साथ भी एक रिश्ता क़ायम होता गया। आहिस्ता-आहिस्ता मुझ पर खुलता गया कि इमरोज़ को पानियों की तरह मिट्टी में भी जज्ब होने का हुनर ख़ूब आता है। वह जज्बाती भी हैं और अमली दानिश रखने वाले एक बेहद व्यवस्थित और व्यावहारिक शख्स भी। उनकी पहचान एक आर्टिस्ट के तौर पर तो है ही, लेकिन उनकी पहचान का एक हवाला अमृता भी हैं और यह हवाला इतना मज़बूत है कि इससे अलग उनको देख पाना अमूमन मुश्किल लगता है।
लेकिन जो इमरोज़ को क़रीब से जानते हैं वे इमरोज़ के अपने रंग, रोशनी और रक्स को पहचानते हैं और ये ऐसे रंग हैं जिनके प्रभाव बल्कि प्रभा-मंडल से निकल पाना नामुमकिन है। इमरोज़ की मिट्टी का गुदाज़, लोच और लचक देख कर हैरत होती है कि कोई इतना सहज भी हो सकता है। जब मेरी अमृता से मुलाक़ात हुई थी, इमरोज़ की आमदनी अमृता से ज्यादा थी। अमृता उस वक्त माली तौर पर जद्दोजहद कर रही थीं। रेडियो पर मुलाज़मत करती थीं और किताबों से उनकी कोई ख़ास आमदनी नहीं थी। वक्त बदला और अमृता की आमदनी में इज़ाफ़ा हो गया, किताबों से रॉयल्टी भी अच्छी आने लगी। लेकिन आमदनी की कमी बेशी कभी उन दोनों की ज़िंदगी में रुकावट नहीं बनी।
इमरोज़ को कैलीग्राफ़ी का शौक़ था। अपने पसंदीदा शायरों, अदीबों के नाम उन्होंने तरह-तरह से लिखे हैं। उनमें एक नाम पंजाबी सूफ़ी शायर सुल्तान बाहू का है। बाहू का नाम उन्होंने इस तरह लिखा है जैसे किसी का पांव हो और उसमें हर उंगली की पोर से रोशनी फूट रही है। इस तरह कि जहां-जहां क़दम रखते हैं वहां-वहां रोशनी फैलती जाती है। मैं इमरोज़ के बारे में जब भी सोचती हूं तो मुझे यह पेंटिंग याद आती है। यह ख़याल आता है कि इमरोज़ ने ज़िंदगी में जहां-जहां क़दम रखे, चाहे घर-आंगन हो या मन-आंगन, वह जगह रोशन हो गई, मुहब्बत और सहजता से भर गई, वहां ज़िंदगी का जश्न जारी हो गया और इसका सिलसिला उनके जाने के बाद भी ख़त्म नहीं होने वाला।
साभार : ब्लॉग डॉट रेख्ता डॉट ओआरजी