गाज़ा में जिस तरह बेगुनाह नागरिकों का नरसंहार, बेइज्जती और उत्पीड़न देखने को मिल रहा है और उस पर शांति कायम रखवाने वाली एजेंसियां बेशर्मी से निष्क्रिय और मरणासन्न बनी हुई हैं, वह एक सभ्यतागत त्रासदी है। इस्राइली नेतृत्व निर्भीक होकर ढीठ बना ताकत की हनक में डूबा पड़ा है, और अंतर्राष्ट्रीय कानून की पूरी तरह अवमानना करने के बावजूद लाभ ले रहा है। बुजुर्ग औरतों को अपने युवा बेटों की लाशों पर पीड़ा से क्रंदन करते देख किसी की भी आंखों में आंसू आ जाएं, लेकिन सरकारें निर्विकार बनी हुई हैं। विशेषकर अमेरिका की, जिसने संयुक्त राष्ट्र में शांति स्थापना को लेकर पेश किए गए प्रस्ताव को पुनः ढिठाई से वीटो कर दिया है। इससे सत्य और नैतिकता युक्त अंतरात्मा की आवाज दबकर रह गई है। जैसा कि नाटककार हैरोल्ड पिंटर ने कहा है, ‘सत्य की खोज कभी बंद नहीं हो सकती’, खासकर ऐसे अंधे वक्त में, जब नाना किस्मों के झूठों ने हमें भरमा रखा है और व्हाइट हाउस एवं बड़े कॉर्पोरेट्स द्वारा पोषित आतंकवाद की करतूतें दुनियाभर में जारी हैं।
कफन में लिपटी अपनी पत्नी के शव पर पति को सिर रखकर रोते देखना हृदयविदारक है। एक मां रानिया अबू ने कुछ दिन पहले पति गंवा दिया था और अब चार महीने के जुड़वां बेटा-बेटी में बेटे को भी। अपने पुत्र की लाश पर हाथ मार बिलखती वह मां पीड़ा में उसकी देह को दफन के लिए ले जाने से रोकती हुई दुहाई देती है, ‘मेरे जिगर का टुकड़ा चला गया, हम तो सो रहे थे न कि गोलियां चला रहे थे, न ही हम लड़ रहे थे। उसका कसूर क्या था? अब मैं कैसे जी पाऊंगी?’ बेटे की दुधमुंही जुड़वां बहन, जो रिश्तेदारों की गोद में कपड़ों में लिपटी पड़ी है, वह भी सुबक रही है लेकिन उसे क्या पता कि मां पर क्या गुजरी है। जिस तरह उसका भाई और अन्य परिवार वाले चले गए उस तरह जाने कितने हज़ार अन्य भी पत्थर हो चुके हमारे मानवीय मूल्यों के जागने से पहले चले जाएंगे। बेगुनाह हमेशा भुगतते आए हैं।
ध्वस्त हुए अस्पताल के बाहर, खून से सनी पटड़ी पर पड़ी चौबीस लाशों का मंजर देखकर पत्थर दिल भी रो देगा। इनमें 11 से अधिक दुधमुंहे बच्चे हैं। बमबारी से तबाह हुए घरों की तस्वीरें, नागरिकों और सुरक्षाबलों के बीच खूनी झड़पों की दृश्यावली काफी न थी कि फलस्तीनियों के हालिया नरसंहार का मंजर झकझोर देता है, वे गए तो थे सामग्री पहुंचाने वाली गाड़ियों के सामने जिंदा रहने को भोजन के लिए हाथ फैलाने, पर झोली में पड़ी मौत। आखिर सामूहिक नरसंहार की परिभाषा में आने के लिए कितनों का होम होना जरूरी है ताकि युद्ध-अपराधियों को सजा देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय को जगने के लिए काफी माना जाए।
गाजा में चल रहा नरसंहार हमें वियतनाम युद्ध और हिरोशिमा पर गिराए परमाणु बम के काले दिनों की याद दिलाता है। क्या यही है सभ्यता जिसके लिए क्रमिक विकास कर हम यहां तक पहुंचे हैं? जिसमें द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद न्यूरम्बर्ग में युद्ध अपराधियों पर चलाए गए मुकदमों जैसा कुछ है? क्या हम इसको सभ्यता कह सकते हैं जब पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री मैंडलिन ऑलब्राइट द्वारा किसी को कहे यह जालिमाना शब्द सुनने को मिलें, ‘हां, उनकी मौत का इतना ही मोल था।’ यह वह राजनेता नहीं है जिनके अंदर युद्ध पीड़ितों के प्रति सहानुभूति दिखाने की काबिलियत हो, यह तो वह नेता है जो बदलाखोरी से ग्रस्त होकर नरसंहार का आनंद लेता है। नैतिकता के तमाम बोध या दायित्व को दरकिनार कर, जिसे सभ्य देश युद्ध में भी कायम रखना चाहेंगे।
‘कला, सत्य और राजनीति’ नामक अपने लेखक में पिंटर यक्षप्रश्न पूछते हैं, ‘हमारी नैतिक संवेदना को क्या हो गया है? क्या अब बाकी भी है? और हमारी अंतरात्मा को क्या हुआ? क्या सब मर चुके हैं?’ गाज़ा के पिछले कुछ महीनों के हालात देखें तो यह साफ हो जाता है कि आपराधिक जुल्म देखकर भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय कमोबेश अनदेखा कर रहा है। अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रॉस को अपना काम करने देने की शक्ति देने को कोई पक्ष राजी नहीं है, जो कि वस्तुतः युद्ध अपराध की श्रेणी में आता है। यानी वे कृत्य जो सैन्य फायदा उठाने में असंगत हों, वे जो सैन्य और नागरिक निशानों में भेद न करें या जो नागरिकों में जख्मियों और मौत की हानि को न्यूनतम रखने की सावधानी बरतने में असफल रहे। लगता है अमेरिका ने खुद को जैसा जी चाहे वैसा हमला किसी पर करने-करवाने की छूट दे रखी है।
इस युग में, जब सशस्त्र संघर्ष चहुंओर व्याप्त हैं, मुश्किलों के दर्दनाक स्वरूप की इससे ज्यादा झकझोरने वाली बानगी क्या होगी जब भयाक्रांत बच्चा मां से पूछे कि गोली लगकर मरने पर कैसा महसूस होता होगा और क्या खून बहने से रोकना संभव है। यह भूल जाना आसान है कि कैसे सैनिक गाहे-बगाहे या जानबूझकर बेगुनाह नागरिकों को रोजाना मार रहे हैं या अंगभंग करते रहते हैं। हालांकि, ऐसे सैन्य अभियानों का प्रचार ‘सर्जिकल’ स्ट्राइक बताकर न्यायोचित बताया जाता है। लेकिन जानबूझकर और निर्ममता से आम नागरिकों की मौत का आंकड़ा अलग दास्तान बयान करता है। यमन में, जहां पर अमेरिका की शहप्राप्त सऊदी अरब के हवाई हमलों में हजारों की संख्या में नागरिक मारे जा चुके हैं, एक स्कूल पर गिरे बम में किसी प्रकार बच निकली आठ वर्षीय बच्ची ने जिस आवेगपूर्ण ढंग से अपना रंज व्यक्त किया वह खूनी दांत किटकटाने वाले असंवेदनशीलों के लिए आंखें खोलने वाला है, ‘मेरे पिता कहते हैं वे मेरे खिलौने खरीदेंगे और नया स्कूलबैग भी। पर अब मुझे स्कूलबैग से नफरत हो गई। मैं तो स्कूल बस के पास भी नहीं फटकना चाहती। मुझे स्कूल से भी नफरत है, मैं सो नहीं पाती। अपने सपनों में उन दोस्तों को देखती हूं जो मुझसे उन्हें बचाने की गुहार लगाते हैं। इसलिए आज से मैं घर पर ही रहूंगी।’
यह तो दर्द की एक दास्तान भर है, यह तो केवल एक व्यथा है, अधिकांश अनकही है, लेकिन यह हमें याद दिलाती है कि युद्ध सिर्फ विध्वंस और खूनी हमलों का दूसरा रूप है। हैरानी है, आज के वक्त में हमें न्यूरम्बर्ग मुकदमों जैसा कुछ सुनने-देखने को नहीं मिलता। युद्ध को त्यागने जैसी भावना की कमी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
हैरानी होती है कि हमारी सभ्यता के लोगों द्वारा क्या सैनिकों का महिमामंडन या युद्ध जीतने का जश्न मनाना ठीक है। मनुष्य की आने वाली नस्लों के भविष्य के लिए जरूरी सोच-विचार करना और किसी को मारने अथवा डराने के लिए सैनिक भेजना बंद क्यों नहीं किया जाता? क्यों नहीं उन त्रासदियों के बारे में सोचते जिससे युद्धग्रस्त लोगों को गुजरना पड़ता है। योजनाबद्ध परपीड़क क्रूरता, ज्यादतियों और सच का निर्दयापूर्वक गला घोंटने वाली करतूतों को कलमबद्ध क्यों नहीं किया जाता?
नए-नए हथियारों पर खरबों-खरब खर्च करने की बजाय क्यों नहीं मुल्क ऐसी एजेंसियों का साथ देते जो शरणार्थियों और जिंदा बचे लोगों की भलाई के लिए प्रतिबद्धता से काम करती हैं। ऐसी दुनिया में, लड़ाई की असली कीमत का भान उन सबके ज़हन में रहे जो इस बात में यकीन रखते हैं कि हमारी सभ्यता वह है जिसकी नींव सहचर की भावना और करुणा पर टिकी है। आप अपनी शक्तियों का उपयोग अपने मित्रों को यह छूट देने में नहीं कर सकते कि जनता को पीटें, गुलाम बनाएं, नरसंहार करें, ध्वंस मचाए और फिर बेझिझक होकर इसे लोकतंत्र की जीत बताएं।
लेखक पीयू के सांस्कृतिक अध्ययन विभाग में प्रोफेसर एवं अध्येता हैं।