बातें तो हम बुद्ध की करते हैं पर करते युद्ध हैं। आंख के बदले आंख निकालने की नीति पर तो पूरा विश्व अंधा हो जायेगा। ज़रा अपने से बाहर तो देखो। कुदरत में मक्खियां मीठा शहद बनाने में जुटी हैं और कीड़े रेशम बुन रहे हैं। दूसरी तरफ दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष ज़हरीले बम और मिसाइल चलाने में जुटे हैं।
कई साल पहले एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें कुछ बन्दर एक सवाल का उत्तर जानने के लिये कब्र को खोदकर डार्विन को खींच कर बाहर निकाल लेते हैं। वे डार्विन से पूछते हैं कि आपने कहा था कि मनुष्य बंदरों का विकसित रूप है पर हम आपके इस तथ्य से सहमत नहीं हैं। आप हमें यह बतायें कि मनुष्य बंदर का विकसित रूप है या विकृत? और सवाल सुनकर डार्विन निःशब्द हो जाते हैं।
सभ्यता और विकास को भाले की नोक पर लटका कर नेतागण बंदूक की नोक से हमारे दिलों पर सुख-शान्ति लिखना चाहते हैं। जिन गलियों में बच्चों को खेलना था, वहां आज टैंक विचरण कर रहे हैं। आज दो देश एक-दूसरे को युद्ध की भठ्ठी में झोंक चुके हैं और कुछ तैयार बैठे हैं। कुछ युद्ध की आग में घी डाल रहे हैं तो कुछ इस आग पर रोटियां भी सेंक रहे हैं। हर युद्ध का अन्त तो सुनिश्चित है। अन्त के बाद नेता हाथ भी मिला लेंगे और गले भी मिलेंगे, विदेश नीतियों पर चर्चा होगी, एम्बेसडर्स चमचमाती गाड़ियों में आयेंगे-जायेंगे। जंग तो चंद रोज होती है पर जिंदगी बरसों तक रोती है।
आवाम को ठंडे चूल्हों में आग फिर से सुलगाने के लिये नाकों चने चबाने पड़ेंगे। अपनी जान बचाने के लिये जो लोग अपने घरों को कंधों पर लेकर कफन पहन भाग खड़े हुये थे, लौटने की चाह में चाहे उनके पांवों में गति आयेगी पर उजड़ा घर देखकर उनकी रूह कांप उठेगी। जान देने वालों को वीरगति-प्राप्त कहा जायेगा। मेडल-तमगे दिये जायेंगे। विधवाओं के आंसुओं को पोंछने की तरकीबें होंगी। उन सुबकते बच्चों को बहलाया जायेगा जो बेचारे पटाखों के धमाकों से ही सिहर जाया करते। अब इन बच्चों के कानों में बमों के कोलाहल ने उन्हंे सुबकियां भरने और डर के मारे सहम कर रातों को चीखने के पाठ पढ़ा दिये हैं।
काश! हर युद्ध पति-पत्नी के झगड़ों जैसा हो जहां न खून-खराबा, न नाटो, न थाना, न गवाही। बस दो दिन मुंह फुलाकर अपने आप सुलझ जाता है।
रामधारी सिंह दिनकर की कुछ पंक्तियां ध्यान में आ रही हैं :-
यह देख जगत का आदि सृजन,
यह देख महाभारत का रण।
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान कहां इसमें तू है।