विश्वनाथ सचदेव
आपने भी अखबारों में यह खबर पढ़ी होगी। टीवी के समाचार चैनल तो चटकारे ले-लेकर बंगाल की इस खबर को दिखाते रहे। खबर एक भाजपाई सांसद की पत्नी की दल बदल कर तृणमूल कांग्रेस में जाने की है। यह सांसद भी पहले तृणमूल कांग्रेस में ही थे, पर दल बदल कर भाजपा में चले गये। उनकी पत्नी भी भाजपा में थी, सांसद महोदय खुद स्वीकारते हैं कि पिछले चुनाव में विजय प्राप्त करने में उनकी पत्नी का बड़ा हाथ था। अब वह पत्नी नाराज है, पति से नहीं, भाजपा से। उन्हें शिकायत है कि भाजपा उन्हें वह सम्मान नहीं दे रही, जिसकी वह हकदार है, इसलिए वे ममता दीदी के साथ जा रही हैं-वे पूरी कोशिश करेंगी बंगाल में भाजपा को हराने की। उनके इस निर्णय से पति दुखी हैं, नाराज भी। और उन्होंने घोषणा कर दी है कि वह पत्नी को तलाक दे देंगे। मतलब यह कि सात जन्मों का एक बंधन राजनीति की भेंट चढ़ गया!
ज्ञातव्य है कि भाजपा के सांसद सौमित्र खान की पत्नी सुजाता मंडल के भाजपा छोड़ने के एक दिन पहले ही देश के गृहमंत्री अमित शाह ने पश्चिम बंगाल के अपने चुनावी दौरे के दौरान तृणमूल कांग्रेस का एक आधार माने जाने वाले सुवेंद्र अधिकारी के साथ दस अन्य प्रमुख तृणमूल तथा कांग्रेसी नेताओं का भाजपा में स्वागत किया था। कहा जा सकता है कि सुवेंद्र आने वाले चुनाव में भाजपा का एक प्रमुख चेहरा बनेंगे।
देश के गृहमंत्री का तो यह भी कहना है कि ‘यह दलबदल’ तो एक शुरुआत है, चुनाव आने तक ममता दीदी अपने दल में अकेली रह जायेंगी। यह उनकी खुशफहमी ही हो सकती है, पर पिछले पांच-सात सालों में इस तरह का दल-बदल एक आम बात हो गयी है। अमित शाह जब भाजपा के अध्यक्ष थे तो उन्होंने ‘कांग्रेस-मुक्त’ भारत का नारा दिया था। भाजपा की रणनीति और कांग्रेस की अपनी कमजोरी के कारण भाजपा को पिछले दो आम चुनावों में भारी सफलता मिली थी। और अब तो लोग यह कहने लगे हैं कि आज भाजपा कांग्रेस-मुक्त भारत की बजाय कांग्रेसी-मुक्त भारत बनाने में लगी है।
दल बदल कोई नयी चीज नहीं है हमारे देश में। इसके खतरों को देखते हुए दलबदल विरोधी कानून भी बने थे हमारे यहां। पर इन कानूनों के बावजूद हमारी राजनीति में दलबदल के दौर आते रहे। एक बार तो हरियाणा में रातों-रात पूरी सरकार ने दल बदल कर लिया था।
वैसे, दल बदल अपने आप में कोई अनैतिक काम नहीं है। अनैतिक तो उसे यह तथ्य बना देता है कि ऐसा करने में हमारे राजनेता किसी भी प्रकार की नैतिकता बरतने की आवश्यकता ही नहीं समझते। यह माना गया है कि जनतांत्रिक व्यवस्था में नीतियों के आधार पर राजनीतिक दल बनेंगे और इन दलों में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होगी। नीतियां तो घोषित होती हैं, उनके अनुसार कार्यक्रम भी बनाये जाते हैं, पर आज सबसे महत्वपूर्ण नीति येन-केन प्रकारेण सत्ता हथियाना बन कर रह गयी है। यह कतई जरूरी नहीं है कि व्यक्ति की विचारधारा कभी बदलेगी ही नहीं, पर अब हमारी राजनीति में विचारधारा के लिए भी कोई स्थान नहीं बचा।
यह दुर्भाग्य ही है कि आज राजनीति का आधार और उद्देश्य सत्ता की प्राप्ति ही हो गया है। जो राजनीतिक दल विचारधारा की दुहाई देते हैं, उन्हें भी सत्ता पाने के लिए कुछ भी गलत नहीं लगता। इसी का परिणाम है कि दलबदल आज की राजनीति की एक शर्मनाक सच्चाई बनकर रह गया है। न दलबदल करने वालों को शर्म आती है और न ही दलबदल करवाने वालों को। आज कोई दल किसी विरोधी को भ्रष्टाचारी, निकम्मा वगैरह कह रहा है, और अगले ही दिन राजनीतिक समीकरणों के चलते वह भ्रष्टाचारी उसी राजनीतिक दल के लिए एक बेदाग नेता बन जाता है। पश्चिम बंगाल में दलबदल करने वाले सुवेंद्र अधिकारी इसका ताजा उदाहरण हैं। कल जब वे तृणमूल कांग्रेस में थे तो भाजपा वाले उन्हें कदाचारी कहते नहीं थकते थे; पैसों का लेन-देन करने के आरोप वाला वीडियो भी कभी भाजपा ने प्रसारित किया था लेकिन आज वह वीडियो ही गायब हो गया है। यह एक उदाहरण मात्र है, इस तरह के उदाहरण लगभग हर पार्टी में मिल जाएंगे। वस्तुतः ये उदाहरण हमारे राजनीतिक अधोपतन को ही दिखाते हैं।
आज हमारी राजनीति इतनी घटिया हो गयी है कि इस अधोपतन के जिम्मेदारों को किसी भी प्रकार का संकोच नहीं होता। उंगली उठती है, पर दूसरों की तरफ। अपने दामन का दाग कोई देखना नहीं चाहता। मज़े की बात यह भी है कि दागदार दामन हमेशा विरोधी का ही होता है, और यही विरोधी जब ‘अपना’ बन जाता है तो उसके दाग़ भी धुल जाते हैं। कुछ दिन पहले ही किसी ने भाजपा को कपड़ा धोने की मशीन कहा था, जिसमें डाले जाने के बाद हर तरह का दाग धुल जाता है! सच तो यह है कि हर पार्टी आज एक कपड़ा धोने की मशीन बनी हुई है।
कुछ दिन पहले लालू प्रसाद यादव की एक टेलीफोन-वार्ता ‘लीक’ की गयी थी। इसमें लालू किसी विधायक को अपनी ओर मिलाने की कोशिश करते सुनाई दे रहे हैं। भाजपा ने खूब शोर मचाया था, लालू प्रसाद पर मंत्री पद का लालच देने की बात कही गयी थी। पर जिस तरह से भाजपा ने मध्य प्रदेश में कांग्रेसियों को मंत्री-पद का लालच देकर अपनी सरकार बनायी थी, क्या उसके बारे में बात नहीं होनी चाहिए।
सवाल किसी पार्टी विशेष का नहीं है। सवाल उस बेशर्मी का है जो हमारे राजनेताओं को रास आ गयी है। माना कि राजनीति अपने आप में एक गंदा खेल है पर क्या इस गंदगी को साफ करने की कोई कोशिश नहीं होनी चाहिये? क्यों नहीं पूछा जाये देश के नेताओं से कि क्या बिना अनैतिक बने राजनीति नहीं की जा सकती? सत्ता के लिए आखिर कितना गिरेंगे हमारे नेता? जब कांग्रेस का शासन था तब भी दलबदल एक काले साये की तरह हमारे ऊपर मंडरा रहा था और अब जब स्वयं को अलग चाल-चरित्र वाली पार्टी कहने वाली भाजपा शासन में है, तब भी हम चोला बदल कर कुर्सी पाने वालों के जलवे देख रहे हैं।
बंगाल में एक पति-पत्नी के ‘राजनीतिक मतभेद’ चटकारे लेकर सुनाये जा रहे हैं। कतई जरूरी नहीं कि पति और पत्नी की राजनीतिक विचारधारा एक ही हो, पर सत्ता में हिस्सेदारी की लालसा से हुए दलबदल जब तलाक तक की नौबत ले आयें तो यह सोचना जरूरी है कि सिर्फ सत्ता के लिए राजनीतिक चोला बदलने पर अंकुश क्यों नहीं लगना चाहिए? बजाय इसके कि हमारे नेता किसी विरोधी को अपने दल में लाने को तमगे की तरह दिखाते फिरें, राजनीति को थोड़ा साफ-सुथरा करने की कोशिश होनी चाहिए। सत्ता के भूखे ऐसा नहीं होने देंगे, पर मेरा और आपका कर्तव्य बनता है कि हम अपने नेता से पूछें-और कितना गिरोगे? यह भी पूछा जाना ज़रूरी है कि हमारे राजनेताओं के विचार तभी क्यों बदलते हैं, जब ‘कुछ’ मिलने की उम्मीद होती है?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।