शमीम शर्मा
एक दिन किसी महाकंजूस के घर कोई मेहमान आ गया तो उसने अपने बेटे से बाजार से आधा किलो बर्फी लाने को कहा। आधे घंटे बाद उसका बेटा खाली हाथ आ गया तो कंजूस ने पूछा कि क्या बात, बर्फी नहीं लाये। बेटा बोला, ‘मैंने हलवाई से बर्फी मांगी थी वो बोला, ऐसी बर्फी दूंगा बिल्कुल मक्खन जैसी तो मैंने सोचा कि मक्खन ही ले लेता हूं। मक्खन वाले के पास गया तो वह बोला कि ऐसा मक्खन दूंगा जैसे शहद हो तो मैंने सोचा शहद ही ले लेता हूं। शहद वाला बोला कि ऐसा शहद दूंगा बिल्कुल पानी जैसा साफ। तो मैं घर आ गया कि पानी तो हमारे घर पर ही बहुत है।’ कंजूस ने बेटे को शाबाशी दी पर फिर उसे ध्यान आया कि आधा घंटा चप्पल घिसा कर आया है। जब वह बेटे को डांटने लगा तो बेटा बोला, ‘पिता जी मैं तो मेहमान की चप्पल पहन कर गया था।’ अब कंजूस की जान में जान आई।
बस उपरोक्त प्रकरण से मिलाकर इस बात को देखा जाना चाहिए कि कंजूस के बेटे की प्रवृत्ति से ही प्रत्येक नेता का आचरण मिलता-जुलता है। उनके पास हर बात के लिये एक कारण मौजूद है। ये कारण सुना-सुना कर ही वे जनता को बातों के ऐसे पकौड़े खिलाते हैं कि जनता को भांग का सा नशा होने लगता है। चुनावी बिगुल बज ही चुका है और आजकल नेता अपने बिलों से निकलकर यानी अपने चुनाव क्षेत्रों में यूं निकल-निकल कर आ रहे हैं मानो बरसात के बाद मकौड़ों की लाइन-सी लग गई हो। पर लोगों को ये नहीं पता कि जैसे कीड़े-मकौड़े आपकी ही चीनी या दाने उठा-उठा कर ले जाते हैं वैसे ही ये नेतागण भी वोटों के दाने उठा ले जायेंगे और फिर पांच साल बाद ही बिलों से निकलेंगे। तब आप ये शे’र गुनगुनायेंगे :-
भीगे कागज की तरह कर दिया तूने जिंदगी को
न लिखने के काबिल छोड़ा न जलने के।
भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां जनता को अपने नेता के भविष्य की 90 प्रतिशत चिंता रहती है और अपने बच्चों के भविष्य की दस प्रतिशत। इस सत्य को तो सब मानेंगे कि राजनीति के फैसले तब तक टाले जाते हैं जब तक जनता उन्हें भूल न जाये। जाति देखकर वोट देने वालों को सोचना चाहिए कि वे नेता चुन रहे हैं अपना बटेऊ नहीं। नेता लोग जातिगत जनगणना के पीछे पड़े हैं और जनता चाहती है कि जात-पात से छुटकारा मिल जाये।
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एक बर की बात है अक नत्थू अपणे बाब्बू तैं बोल्या- डेढ़ सौ रुपये दे दे गला घणां खराब हो रह्या है। उसका बाब्बू बोल्या- डट ज्या, मन्नैं लट्ठ ठा लेण दे, फेर देखिये तेरी किलकी भी लिकड़ैगी।