ऋषभ जैन
किसान परेशान है। नहीं, उसकी फसल के साथ कोई लोचा नहीं हुआ। वह तो ठाठ से बिक भी गयी। उसे पैसे भी मिल गये। दरअसल, किसान को पता नहीं चल पा रहा कि उसकी फसल खरीदी किसने है। दो-दो सरकारें पीछे पड़ी हैं उसके। डबल इंजन वाली नहीं है न उसके राज्य में। इधर से राज्य वाली कहती है कि तेरी फसल हमने खरीदी। उधर से केंद्र वाली बताती है कि दाने-दाने के पैसे उसने दिये। दाने की बात सुनकर किसान की घबराहट और बढ़ जाती है। थोड़े से घुन वाले दाने टिका आया था वह। रामभरोसे की बात में आ गया था कि सरकारी खरीदी में सब चलता है।
हमने उसे समझाया कि ये कहें तो इनकी मान लेना और वे बताएं तो उनके सामने हाथ जोड़ लेना। किसान ने ऐसा किया भी। पर वे दोनों पीछे पड़े हैं कि हमसे खरीदवाई है तो वोट भी हमें दे। वह बेचारा तो अपना वोट आधा-आधा बांटने को भी तैयार है। वोट-ओट से ज्यादा मोह नहीं रखता किसान। जिसे एक दिन दूसरे को दे देना है उससे क्या मोह करना। बांट कर सुलह कराने के मामले में तो उसे खानदानी महारत हासिल है। पिताजी और ताऊजी में सिर फुटव्वल हुई थी तब दादाजी ने एक-एक एकड़ बंटवारा करके ही तो मामला निपटाया था। फिर बड्डा दारू पीकर गरियाता था तो पिताजी ने अपनी एक एकड़ उन तीनों भाइयों में बांट दी। वोट बांटने में तो और भी कोई दिक्कत नहीं।
किसान की चले तो ईवीएम में दोनों की बटन दबा कर आ जाये। सरपंच भभका दे तो एक बटन उसका भी दबा आये। पर वह डरता है। कहीं चुनाव कराने वाले साहब नाराज न हो जाएं। संशय में तो है किसान। निर्भीक होता तो धान खरीदने वाले बाबू से ही नहीं पूछ लेता कि भैया तुम केंद्र वाले हो कि राज्य वाले? पर वह क्या करे। धान लेकर जाता है तो बाबू-साहब ऐसी चिड़चिड़ मचाते हैं कि पूछने की हिम्मत नहीं होती। ‘आफिस में इत्ते सारे बिल पेंडिंग हैं, कहां इतनी बेगारी में फंस गया’, वे बड़बड़ाते हैं। सहम जाता है किसान।
गलती किसान की ही है। आंख खुली तब से हल-बख्खर पेले पड़ा है। थोड़ा पढ़-लिख लिया होता तो और बात होती। देश का संघीय ढांचा, वित्त आयोग कुछ भी तो नहीं जानता वह। जीवन में एक ही चीज सीखी है उसने। केंद्र दे तो केंद्र से ले लो और राज्य दे तो उनसे सोई झटक लो। दोनों एक साथ आ गये तो मुंहबाये खड़ा हो गया है। थोड़ा हिसाब-किताब सीखा होता तो वित्त लेखे देखकर बता देता कि उसके धान का असली खरीददार है कौन।
किसान धान खरीदी के सवाल से ही नहीं निकल पा रहा। आगे उसका स्वास्थ्य बीमा किसने कराया, आवास किसने बनवाया वगैरह भी झेलना है। देखना, वह कहीं भी अपना वोट दे आयेगा। वोट की फ़िक्र है भी नहीं उसे। देने की चीज है कोई भी ले जाये।