ज्योति मल्होत्रा
‘पप्पू’, वह विशेषण जो सत्ताधारी भाजपा पिछले कई बरसों से राहुल गांधी का मखौल उड़ाने के लिए बरतती आई है, क्या उसने जन-अपेक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है, जैसा कि अब हम जान चुके हैं, अच्छे नंबरों से। अलबत्ता, ये अंक पिछले जमाने के पैमाने- ‘फर्स्ट-क्लास-फर्स्ट’ या ‘विशेषज्ञतापूर्ण’ (डिस्टिंक्शन) या फिर ‘फ्लाइंग कलर’ (बहुत बढ़िया) जितने नहीं है, वरना हालिया चुनाव के बाद केंद्र में सरकार कांग्रेस की या कहिए ‘इंडिया’ गठबंधन की होती। हां, अंक इतने जरूर हैं कि 18वीं लोकसभा में अंतर ला सकें– बाकी देश में भी।
मौजूदा लोकसभा के आरंभिक किंतु लघु सत्र में दिया राहुल गांधी का पहला भाषण, जिसमें उन्होंने अनेकानेक भगवानों एवं संतों का संदर्भ देकर उदाहरण गिनाए– शिव से लेकर गुरु नानक एवं जीसस क्राईस्ट तक– जिसके जरिए उन्होंने हिंदू धर्म की ‘समावेशी आत्मा’ और हालिया वर्षों में भाजपा द्वारा बरते जा रहे अधिक कट्टरता वाले हिंदुत्व के बीच अंतर को उजागर करना चाहा और संसद में इसकी जरूरत वाकई लंबे समय से थी। इसी बीच, तृणमूल कांग्रेस की तेज-तर्रार नेत्री महुआ मोइत्रा का अपने संबोधन में पैब्लो नेरूदा और पुनीत शर्मा के उदाहरणों का इस्तेमाल (तुम कौन हो बे, मुझे पूछते हो, इस देश से मेरा रिश्ता कितना गहरा है) ‘डर से निजात’ को जतलाने के मकसद से था, जिसके लिए उन्होंने जोर देकर कहा, यह अब देश में पैदा हुए नए जज़्बे का उद्घोष है।
बड़ी बात यह कि न तो चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी ने और न ही नीतीश कुमार के जदयू ने -जिनकी बैसाखी पर प्रधानमंत्री मोदी की सरकार टिकी हुई है- ज्यादा हो-हल्ला किया, मानो उन्हें ज़रा परवाह नहीं। लगता है नायडू और नीतीश, दोनों को, भली-भांति पता है –नीतीश के गिरते स्वास्थ्य की अफवाहों के बावजूद- चोट मारने का यही सही वक्त है, जब लोहा गर्म है। अर्थात्, यही समय है जब केंद्र सरकार से अपने-अपने सूबे की हालत सुधारने के लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता ले सकें, भले ही इसके लिए ‘विशेष राज्य’ का दर्जा मिले न मिले। नायडू, जिनके 16 सांसद एनडीए के लिए बहुमूल्य हैं, विशेष तौर पर उन्हें अपनी नव-अर्जित शक्ति का भान है। चूंकि वे पहले भी कई राजनीतिक दलों के साथ गठजोड़ कर चुके हैं लिहाजा दलबदलू के ठप्पे की परवाह नहीं है, बतौर मोदी का सहयोगी, उनका मंतव्य अपने लिए अधिक से अधिक फायदा पाना है। इस सिलसिले में उन्होंने गत वीरवार को दिल्ली में प्रधानमंत्री के अलावा छह केंद्रीय मंत्री– अमित शाह, नीतिन गडकरी, पीयूष गोयल, शिवराज सिंह चौहान, मनोहर लाल खट्टर, और हरदीप पुरी– से मुलाकात की। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार को उनके सूबे के मुद्दों पर ‘समयबद्ध ध्यान’ देने के लिए राज्य सरकार के अफसरों के साथ एक ‘प्रभावशाली समन्वय’ तंत्र बनाना चाहिए– इन विषयों में, प्रस्तावित नई राजधानी अमरावती के लिए रिंग रोड की मांग से लेकर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से आगामी बजटीय भाषण में आंध्र प्रदेश में नई तेल रिफाइनरी लगाए जाने की घोषणा करवाना शामिल है।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि नायडू कितना धन मांग रहे हैं। किसी का कहना है कि 1 लाख करोड़ रुपये तो कोई इससे आधा। लेकिन जो बात शीशे की तरह साफ है, वह यह है कि जो भी चाहेंगे, वह मिलेगा। जिन लोगों को हकीकत का पूरी तरह अहसास है, वे जानते हैं कि संसद में की गई गर्मागर्म बहस और आतिशी भाषण, मसलन, राहुल और महुआ के, साफ कहें, तो इनका कोई फायदा नहीं। क्योंकि मोदी 3.0 तब तक चलेगी जब तक कि नायडू पूरी तरह संतुष्ट हैं, इसलिए यह मोदी के हित में होगा कि उन्हें खुश बनाए रखें। फिर, ऐसा भी नहीं कि इन्हें देने को केंद्र सरकार के पास पैसा नहीं है– पर्याप्त है। बल्कि उसके पास चतुरतम नौकरशाही भी है, जिसे भली-भांति इल्म है कि इसके लिए जुगाड़ कहां से और कैसे करना है। मोदी और नायडू, दोनों को भी यह पता है। उनसे यह भी छिपा नहीं है कि नीतीश कुमार अधिक खतरनाक हो सकते हैं, क्योंकि अगले साल बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं और खुद को राजनीतिक रूप से फंसा देख यह शख्स अपनी जरूरत की खातिर किसी भी हद तक जा सकता है- पाला बदलने समेत। जिन सबको देश की हालत को लेकर चिंता है, तो यहां खुशकिस्मती से दुनिया में भारत का स्थान बेहतर मुल्कों में एक है, क्योंकि माली हालत अच्छी है –गोकि, वह अलग बात है कि क्या इसका अधिकांश भाग केवल दो सूबों को संवारने में लगने वाला है। इसलिए, दिल्ली का कौन-सा प्रारूप अधिक सच है, एक वह जो कहता है कि भारत बदल चुका है क्योंकि भाजपा अपने दम पर बहुमत नहीं ले पाई और उसे दबकर रहना पड़ेगा और यह भी कि सत्ताधारी दल के ‘बहुसंख्यकों का तुष्टीकरण’ एजेंडे की तरफ लोगों का झुकाव अब और नहीं रहा? या फिर वह प्रारूप जिसमें माना जाता है कि संसद भले ही स्तरीय भाषणों का मंच हो, लेकिन असल शक्ति हमेशा से संसद से बाहर ही रही है?
लेकिन फिर, जैसा कि हमेशा से होता आया है, भारत एकदम दाएं या बाएं किनारे पर चलने की बजाय मध्यमार्ग को चुनता आया है, जिसमें ‘कुछ अपनी तो कुछ उनकी चले’ पर तरजीह रहती है। ‘जनता जनार्दन’ द्वारा भाजपा और प्रधानमंत्री के कद की छंटाई किए जाने के ठीक एक माह बाद, यह संदेश स्पष्ट एवं तीव्र बनकर उभरा है– सरकार सशक्त हुए विपक्ष की आवाज़ को कुचलकर अब अपनी मनमानी पहले की भांति नहीं चला पाएगी। इसलिए, चाहे तो भाजपा –या फिर लोकसभा अध्यक्ष के भी– के पेट में दर्द उठे, लेकिन उन्हें ‘इंडिया’ गठबंधन से हाल में चुनकर आए 232 सांसदों की सुननी पड़ेगी, क्योंकि गिनती में उनके और भाजपा के सांसदों में अंतर अधिक नहीं है। बानगी यह है, जगदम्बिका पाल– जिनकी मशहूरी उत्तर प्रदेश का एक दिन का मुख्यमंत्री होने की है– पिछले साल जब वे अध्यक्षता कर रहे थे तो महुआ मोइत्रा को सदन से निष्कासित कर दिया था, संयोगवश, इस बार फिर से उसी कुर्सी पर विराजमान थे और उसी महुआ को बोलने के लिए पूरे 28 मिनट देने पड़े।
बड़ी बात यह कि इसका विपरीत भी एक सत्य है। खडूर साहिब से निर्वाचित हुए अमृतपाल सिंह और बारामूला से सांसद चुनकर आए इंजीनियर राशिद का मामला लें, जिन्हें क्रमशः राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और यूएपीए के अंतर्गत नज़रबंद किया हुआ है। अमृतपाल असम की डिब्रूगढ़ जेल में तो राशिद दिल्ली की तिहाड़ में बंद है। लेकिन दोनों को शुक्रवार को सरकारी खर्च पर संसद भवन लाया गया– अमृतपाल को पहले जेल से हेलीकॉप्टर में स्थानीय हवाई अड्डे तक, फिर विमान से दिल्ली और आगे कारों के काफिले में– ताकि बतौर सांसद शपथ ले सके, ‘संविधान के प्रति निष्ठा की सौगंध’ उठाकर— दोनों पर पृथकतावाद फैलाने का आरोप है लेकिन फिर भी उनके परिवार और कट्टर समर्थकों तक को अहसास हो चला है कि यदि वे चाहते हैं कि शेष देश उनकी कही पर कान धरे– कुछ सहानुभूतिपूर्वक भी- तो इसकी एकमात्र राह है कि वे अपने भाषणों में मध्यमार्गी तौर-तरीके बरतें।
यक्ष प्रश्न फिर वही, क्या ‘पप्पू’ पास हो गया? क्या ‘पप्पू’ ने जन-अपेक्षा का इम्तिहान पास कर लिया? इसके लिए अवश्य ही राहुल गांधी को दबाव बनाए रखना होगा, और यदि हाथरस प्रसंग एक पैमाना है, उत्तर तो कुछ सधा ही सही, अवश्य ही ‘हां’ होगा।
लेखिका द ट्रिब्यून की प्रधान संपादक हैं।