असल में आज दिन-ब-दिन नियंत्रण से बाहर हो रही मानवीय गतिविधियों के कारण दुनिया पर्यावरण व जलवायु असंतुलन की मार झेलने को विवश है। सर्वविदित है कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए जीवाश्म ईंधन सर्वाधिक जिम्मेदार है। यह भी कि साल 2021 की तुलना में 2022 में दुनिया में कोयले का उपयोग तेजी से बढ़ा है। पर्यावरण असंतुलन, जलवायु अस्थिरता और प्रकृति द्वारा मानवीय गतिविधियों के प्रत्युत्तर में उपजी चुनौतियां गंभीर हैं। ऐसे में हमें पेड़ों के अंधाधुंध कटान पर अंकुश लगाना होगा। दुनियाभर में बीते तीस सालों में 6.68 लाख हेक्टेयर जंगल काटे जा चुके हैं। एनर्जी ट्रांसमिशन कमीशन ने यह साबित कर दिया है। पेड़ कटान रोककर हम कार्बन डाईआक्साइड का दुष्प्रभाव कम कर सकते हैं। इस दिशा में ब्राजील का उदाहरण गंभीर चेतावनी है। वहां के उत्तर-पूर्वी राज्य के बुरिटिकपुआ शहर में शहरी नियोजन की कमी व बेतहाशा जंगल कटाई का दुष्परिणाम जमीन फटने के रूप में सामने आया।
करीब 200 देशों ने मांट्रियल में गत दिसंबर में हुए सीओपी-15 शिखर सम्मेलन में दुनिया भर में जीवों और पौधों की प्रजातियां को जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचाने और अब तक हो चुके नुकसान की भरपाई के लिए कनमिंग-मांट्रियल समझौते को स्वीकृति दी थी। मक़सद था कि दुनिया हरी-भरी और चहकती रहे। यह भी कि हमें बीमारियों से बचना है तो जैव विविधता को सहेजना होगा। इस हकीकत को नजरअंदाज करना गलती हाेगी कि इंसान और प्रकृति एक ही तंत्र के दो पहलू हैं और एक दूसरे पर आश्रित भी। प्रकृति इंसान की भोजन, जल, औषधि, स्वच्छ हवा सहित मूलभूत जरूरतों की पूर्ति करती है, ऐसे मेंें प्रकृति भी इंसान से अपेक्षा करती है कि वह उसके नैसर्गिक स्वरूप में दखलंदाजी न करे। लेकिन इंसान ने अपने भौतिक सुखों की ख़ातिर पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ की जिससे इंसान, जल, जंगल और जीवों के बीच दूरी बढ़ती गयी। जंगल कटान के कारण वन्य जीवों के प्राकृतिक पर्यावास नष्ट हुए तो वे सीधे मानव के संपर्क में आने को विवश हुए। जानवरों के वायरसों का इंसान में संक्रमण शुरू हुआ। खेती, भूमि भी इस प्रकोप से अछूती नहीं। दरअसल सीओपी-15 सम्मेलन का मक़सद था कि पृथ्वी के सभी जीवनदायी घटक सुरक्षित, स्वस्थ और आनंदित रहें। जैव विविधता के संतुलन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मानव-वन्यजीव संघर्षों को कम करना बेहद जरूरी है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि जैव विविधता समृद्ध बनाने, खाद्य शृंखला सुचारु रखने व स्वस्थ पारिस्थितिकीय तंत्र की स्थापना में वन्यजीवों की अहम भूमिका है। इनके साथ संघर्ष की अपेक्षा सह-अस्तित्व का भाव विकसित करना ही प्रकृति हित में है। इस समझौते की तुलना जलवायु परिवर्तन पर 2015 में हुए पेरिस समझौते से की गयी है जिसमें वैश्विक औसत तापमान बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने की दिशा में कदम उठाने पर सहमति बनी थी।
पर्यावरण नुकसान इंटरनेट के बढ़ते उपयोग से भी हो रहा है। इंटरनेट के ज्यादा इस्तेमाल और मोबाइल संख्या में बढ़ोतरी से पर्यावरण में कार्बन डाइआक्साइड तेजी से बढ़ रही है। एक अध्ययन के अनुसार समूची दुनिया में हर रोज करीब 35 लाख ईमेल भेजे जाते हैं जिससे 14 मीट्रिक टन कार्बन का उत्सर्जन हो रहा है। एक बिजनेस ईमेल यूजर हर साल करीब 135 किग्रा कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन करता है। यह एक कार को लगभग 300 किलोमीटर तक चलाने से होने वाले उत्सर्जन के बराबर है। इंटरनेट उपयोग वृद्धि से पर्यावरण में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन सालाना 4 फीसदी बढ़ रहा है।
दुनिया में तापमान वृद्धि से अर्बन हीट स्ट्रेस यानी शहरी इलाकों में गर्मी की वजह से तनाव में बढ़ोतरी हो रही है। बता दें, 55 फीसदी आबादी दुनियाभर में शहरों में रहती है। इस साल फरवरी की गर्मी ने तो पिछले 17 साल का रिकार्ड तोड़ ही दिया है। आगामी 5 साल में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण लू का प्रकोप और बढ़ेगा।
चिकित्सा क्षेत्र में यह एक बड़ी चुनौती सुपरबग है। जलवायु परिवर्तन से इसके विकराल होने की संभावना जतायी जा रही है। इससे हर साल करीब 12.5 लाख लोग मौत के मुंह में चले जाते हैं। सुपरबग पर मौजूदा एंटीबायोटिक दवाएं काम नहीं करती हैं। यह चुनौती और बढ़ जाती है जब जलवायु लक्ष्यों को लेकर वैश्विक लक्ष्यों के साथ चलने का दावा करने वाली विश्व की 24 बड़ी कंपनियों की प्रगति संतोषजनक नहीं पायी गयी। एक अध्ययन में खुलासा हुआ है कि इनकी जलवायु रणनीतियां अपर्याप्त हैं। दरअसल, प्रकृति के साथ सामूहिक तालमेल के साथ ही आगे बढ़ा जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कहते हैं कि जन भागीदारी से जलवायु परिवर्तन से लड़ना होगा। दरअसल, लड़ाई जीवन शैली में बदलाव के साथ हर घर से लड़नी होगी।