दिनेश चमोला ‘शैलेश’
भौतिकता की चकाचौंध ने जहां मनुष्य को अत्यंत सुविधाभोगी बना दिया है, वहीं संबंधों को विस्तार से दरकिनार कर नितांत करते मनुष्य को एकांतता के विचित्र लोक में भी ला खड़ा कर दिया है। इस एकांतवास ने न केवल उसमें दैहिक परिवर्तन किया है, बल्कि उसके चिंतन व नैसर्गिक अपनत्व के धरातल को भी बदल कर रख दिया है। वह भ्रम अथवा अज्ञानतावश ईश्वर के बाद स्वयं को सर्वोपरि सत्ता समझने लगा है, जिसने अनेक कोणों से उसके जीवन को बोझिल बना दिया है।
अज्ञानता व अहम की कृत्रिमता, मौलिकता के दिव्य लोक से भटका कर मनुष्य को उस नैराश्य के विस्मित वातावरण में ले जाने के लिए अभिशप्त करती है, जहां वह अपने अलावा दूसरे की शक्ति, संपन्नता, बौद्धिक कौशल, प्रतिभा एवं अन्य क्षेत्रों में स्वयं को सफलता के शिखर पर आरूढ़ हुआ समझता है। किंतु सत्य इसके एकदम विपरीत है।
मनुष्य प्राकृतिक संबंधों; प्राकृतिक संपदाओं के बेजोड़ व अनुपम लोक से मानसिक, बौद्धिक अथवा शारीरिक रूप में स्वयं को जितना दूर करता चला जाता है, वह अपने लिए कष्ट, आपदा एवं चिंतन की संकीर्णताओं के रूप में अनेक प्रकार की गहन वैचारिक खाइयों का निर्माण कर रहा होता है, जिससे उबरने अथवा उबारने की घट-जोड़ में वह स्वयं की संपूर्ण शक्ति, संपन्नता व वैभव का क्षरण कर देने लगता है लेकिन फिर भी हाथ कुछ नहीं लगता।
मां प्रकृति, सदैव अपने प्राकृतिक अवयवों के माध्यम से प्रकृति के समानांतर सुरुचिपूर्ण व्यवस्था में ढल जाने की नसीहत देती रहती है किंतु अहंकारी मनुष्य उसके प्राकृतिक व मूल्यपरक सैद्धांतिक अवसंरचना का उल्लंघन व अतिक्रमण करता रहता है, जिसकी समय आने पर उसे हजारों गुना कीमत चुकानी पड़ती है।
मानव को उसकी इस अथाह अज्ञानता और उद्दंडता का प्रतिफल मां प्रकृति, समय-समय पर दैहिक, दैविक, भौतिक तथा बौद्धिक झटके लगाने के रूप में दिया करती है। किंतु नितांत नासमझ और जिद्दी प्रकृति का मानव प्राकृतिक अवयवों को धता बताने की गहन हठधर्मिता से बाज नहीं आता। प्रकृति द्वारा निर्मित परंपराओं का उल्लंघन स्वयं के लिए न केवल कष्टकारी सिद्ध होता है बल्कि एक अभिशप्तता की अवस्था के अवसाद से भी उसे ग्रसित करता है।
एक समय था जब संबंध व संबंधी तथा संयुक्त परिवार प्राण, ऊर्जा, स्नेह, सौहार्द, अपनत्व, सम्मान, प्रतिष्ठा, बल, यश, शक्ति का पर्याय था, किंतु आज व्यक्ति इतना व्यष्टिपरक हो गया है कि संयुक्त परिवार का सारा विस्तार उसके ‘मैं और मेरा एक’ या फिर ‘मैं और मेरे दो’ में आकर सिमट गए हैं। मनुष्य स्वयं को पूर्व की अपेक्षा अधिक ज्ञानवान, अधिक विवेकपूर्ण, अधिक शक्तिशाली, अधिक संसाधनयुक्त, अधिक दक्ष-प्रवीण व चातुर्ययुक्त समझने लगा है, किंतु यह अंतिम सत्य नहीं है।
संबंधों की दुआओं की नैसर्गिक सीढ़ियां चढ़कर ही व्यक्ति जीवन की सफलताओं की मंजिल प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार से मिली हुई उपलब्धियां शाश्वत, सनातन, सर्वग्राही व दीर्घजीवी भी होती हैं तथा टिकाऊ भी।
‘मनुस्मृति’ में उपाध्याय की तुलना में गुरु का दस गुना, गुरु की अपेक्षा पिता का सौ गुना तथा पिता की अपेक्षा माता के गौरव का उल्लेख किया गया है :-
‘उपाध्यायांदशाचार्य आचार्याणाम शतं पिता।
सहस्रन्तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥’
(मनुस्मृति; 2/145)
जो इस प्रदत्त संबंधों की वरिष्ठता, गरिमा का अनुकरण व अनुसरण करता है, वह सदैव देवीय अनुकंपा का सतपात्र होता है जो इन संबंधों की नैसर्गिकता, वरिष्ठता एवं उत्तमता की उपेक्षा करता है, वह सब कुछ होने व पाने के बावजूद भी अंतर्मन से सदैव क्षुब्ध रहने के लिए अभिशप्त होता है। इसका वर्णन स्वयं विमाता कैकेयी भी अपने पुत्र लक्ष्मण से वनगमन के समय करती है कि गुरु, माता, पिता, भाई, देवता व स्वामी की सेवा प्राणपण से की जानी चाहिए तभी व्यक्ति अपने क्षेत्र में दक्षता अर्जित कर सकता है। इसी बात को ‘रामचरितमानस’ में संत तुलसीदास इस तरह लिखते हैं :-
‘गुरु पितु मातु बंधु सुत सांई।
सेइअहिं सकल प्रान की नाईं॥’
(रामचरितमानस; 2/74/5)
परिवार में ज्येष्ठ भ्राता भी पिता के समतुल्य पूज्य होता है। इसका सुंदर वर्णन संत तुलसी, प्रभु श्रीराम के मुखारविंद से उस क्षण करवाते हैं जब वे माता कैकेयी से वन जाते समय, अपने माता-पिता व अग्रजों के वचनों व आज्ञा का पालन करने वाले पुत्र को श्रेष्ठतम बताते हुए कहते हैं :-
‘सुनु जननी सोई सुत बड़भागी।
जो पितु मातु बचन अनुरागी॥’
(रामचरितमानस; 2/41/7)
अतः सूत्र रूप में यह स्वयंसिद्ध है कि जीवन में संबंधों की मौलिकता ही उपलब्धियों के विस्तार में प्राणों का संचार करने में सक्षम है अन्यथा जीवन-बेल कभी भी असमय कुम्हलाने के लिए विवश हो सकती है।