देविंदर शर्मा
विश्व में सबसे पुराने नीलामी घरों में से एक है न्यूयार्क स्थित ऑक्शन हाउस सोदबी’ज़, जिसे अब पेंटिंग, कलाकृतियों व प्रतिष्ठापूर्ण आभूषणों के बजाय कृषि पदार्थों के मूल्यों की ओर रुख करने पर विचार करना चाहिये। अपने पोर्टफोलियो का विस्तार करते हुए सोदबी’ज़ कृषि पदार्थों की कीमतों पर भी नीलामी शुरू करने की सोच सकता है।
यदि नीलामी घर कृषि उपज की ज्यादा ऊंची कीमतें प्राप्त करने का उद्यम शुरू करता है, वह भी ऐसे वक्त जब भारत में लोकतंत्र का उत्सव यानी चुनाव प्रक्रिया जारी हो तो वैश्विक स्तर पर सोदबी’ज़ एक लोकप्रिय नाम के तौर पर उभरकर सामने आयेगा। केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में किसान उस नीलामी पर पैनी नजर रखेगा।
दरअसल, बीते दिनों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्रों में किसानों के लिए किये वादों में अंतर मालूम करना मुश्किल हो रहा था, तो शायद सोदबी’ज़ किसानों को बेहतरीन कीमतें प्रदान करके कुछ और अच्छा कर सकती थी।
ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि ऐसी किसी नीलामी के बाद जो अंतिम कीमत सामने आती है किसान को उस पर और ज्यादा यकीन होगा, इस उम्मीद के चलते कि नीलामी में भागीदारी कर रहे राजनीतिक दल अपने किये वादे से पीछे नहीं हटेंगे। चुनावी राज्य मध्यप्रदेश में सबसे पहले जारी किये गये कांग्रेस घोषणापत्र में गेहूं और धान के लिए ज्यादा ऊंची कीमतें प्रदान करने का वादा था।
धान के दाम प्रति क्विंटल 2,040 रुपये (पहले घोषित) के बजाय कांग्रेस ने 2,500 रुपये प्रति क्विंटल का आश्वासन दिया था। भाजपा का घोषणापत्र भी उसके सियासी प्रतिद्वंद्वी द्वारा किये वादे के बराबर या उससे बढ़कर बनाने की कोशिश की गयी। धान के मामले में, भाजपा ने 3100 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किये। कांग्रेस ने भी बाद में इसके समान कर दिया। राजस्थान में कांग्रेस ने स्वामीनाथन के फार्मूले को लीगल गारंटी प्रदान करने का आश्वासन दिया था।
छत्तीसगढ़ में जहां पहले ही धान का खरीद मूल्य अधिक यानी प्रति क्विंटल 2,640 रुपये था, कांग्रेस पार्टी ने प्रति क्विंटल 3,200 रुपये का विश्वास दिलाया, इस आश्वासन के साथ कि प्रति एकड़ अंत के 20 क्विंटल इस दाम पर खरीदे जायेंगे। वहीं भाजपा के घोषणापत्र के मुताबिक, यदि पार्टी सत्ता में आती है तो वह धान का भाव 3,100 रुपये प्रति क्विंटल देगी और इस रेट पर वह प्रति एकड़ 21 क्विंटल खरीदेगी। तेंदु पत्ता के संग्रह के लिए भाजपा ने 5,500 रुपये का प्रस्ताव दिया तो कांग्रेस ने सालाना 4000 रुपये बोनस के साथ 6000 रुपये की घोषणा की थी।
अब, ऐसा क्यों है कि वादों के प्रति गंभीरता नहीं बरती जाती है। बीते दिनों आपने जिससे भी बात की उसीने यह कहा कि ये तो केवल चुनावी हथकंडे हैं, और जैसे ही चुनाव परिणाम आएंगे तो ये सियासी पार्टियां अपने वादों से पल्ला झाड़ लेंगी और असल में वे इन कीमतों को नकारने के लिए कोई बहाना ढूंढ लेंगी। जाहिर है, यह एक चुनौती बन जाती है कि कैसे चुनाव जीतने वाले दल अंतत: अपने वादे के मुताबिक काम करेंगे। यह भी कि यदि वे इस बार वादा पूरा करने में नाकाम रहे तो तो चुनावी वादे आगामी इलेक्शंस में अहमियत खो देंगे। ये मनोरंजन के अलावा कुछ भी नहीं रहेंगे।
यहां हम समझने का प्रयास करें कि क्यों संदेह जताये जा रहे हैं। दरअसल, दोनों ही राजनीतिक दलों ने उपज की इतनी कीमतें देने का चुनावी वादा किया जो डॉ. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग की सिफारिशों से भी बहुत ज्यादा बैठती हैं। कॉम्प्रिहेंसिव लागत पर 50 फीसदी लाभ (सी2+50 प्रतिशत) की सिफारिश के मुकाबले दोनों ही पार्टियों द्वारा धान और गेहूं के घोषित मूल्य उससे बहुत ज्यादा यानी (सी2+62 प्रतिशत) बनते हैं।
यहां सवाल उठता है कि जबसे यानी अक्तूबर 2006 से स्वामीनाथन आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी है, तबसे लेकर सत्ता में रही विभिन्न सरकारें इन कीमतों को लागू करने में हीला-हवाली करती रही हैं। यहां तक कि 2014 के राष्ट्रीय चुनावों में जब भाजपा ने किसानों को स्वामीनाथन कमेटी द्वारा सुझाए सी2+50 दाम देने का चुनावी वादा किया तो, सत्ता संभालने के तुरंत बाद सरकार ने यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर किया कि स्वामीनाथन फार्मूले के अनुरूप दाम प्रदान करना संभव नहीं क्योंकि यह मार्केट्स को विकृत कर देगा।
क्या अब दिये जाने वाले अधिक दाम ‘मार्केट को नहीं बिगाडेंगे’? इन तमाम सालों में ऐसा क्या बदल गया कि अब राजनीतिक दल सोचने लगे हैं कि वे स्वामीनाथन द्वारा की गयी सिफारिशों से भी उच्च दाम दे सकते हैं? इसीलिए कि उपज की सी2+50 प्रतिशत से भी बढ़कर ऊंची कीमतें प्रदान करने का वादा गले नहीं उतर रहा है। अगर सी2+62 प्रतिशत कीमतें सही ही हों तो पार्टी बैनर से ऊपर उठकर सभी सियासी दलों का नेतृत्व समस्त देश में इसे एक समान कृषि कीमत बनाने के प्रयास क्यों नहीं करता है?
इसके अतिरिक्त, चूंकि एनडीए सरकार ने प्रांतों की सरकारों को निर्देश दिया था कि वे गेहूं और धान की खरीद के एमएसपी पर कोई बोनस न दें, यह कहते हुए कि यदि उन्होंने ऐसा किया तो केंद्र खरीद समर्थन वापस ले लेगा- तो क्या उच्चतर कीमत को खरीद कीमतों पर पर बोनस के रूप में नहीं देखा जाएगा? मुझे नहीं लगता कि हाल ही में इस पर कोई नीतिगत पुनर्विचार हुआ हो।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में उपज की अधिक ऊंची कीमतें घोषित करने की दौड़ कम से कम यह तो मालूम हुआ कि जिस दु:ख-दर्द को कृषक समुदाय झेल रहा है उसे समझने में नेता वर्ग ज्यादा बेहतर रूप से सक्षम है। वे जानते हैं कि क्यों किसान तनाव में जी रहे हैं , और उन्हें संकट की स्थिति से निकालने के लिए क्या किये जाने की जरूरत है? यह मानते हुए कि जब देश में किसानों की औसत मासिक आय (कृषक परिवारों के ताजा सिचुएशनल एसेसमेंट सर्वे के मुताबिक) बमुश्किल 10,218 रुपये बैठती है, तो कृषि आमदन में वृद्धि करने की तुरंत जरूरत है।
पर जब वही राजनीतिक नेता सरकार गठित करते हैं तो हकीकत यह है कि उन पर मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों और नौकरशाहों द्वारा इतना दबाव बनाया जाता है कि किसानों की आय में बढ़ोतरी करने की कोई भी बात बाजारों को बिगाड़नेे वाली नजर आने लगती है। हकीकत में, यह एक तरह से मानसिकता की गड़बड़ी ही कही जाएगी जिसने कृषि को जान-बूझकर वंचित बनाए रखा है।
क्या ये चुनावी वादे असल में लागू किये जाएंगे, यह तो सिर्फ समय ही बतायेगा? देखते हैं, तीन दिसंबर को परिणाम घोषित होने के बाद क्या होता है।
लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।