तिरछी नज़र
प्रदीप उपाध्याय
अब मैं मुर्गा लड़ाई देखने कल्लू चाचा के बाड़े में नहीं जाता और न ही मुर्गे की बांग सुनकर मेरी नींद टूटती है। कल्लू चाचा ने भी मुर्गों की लड़ाई का खेल शायद बंद कर दिया क्योंकि रघु काका ने वहां अपना मुर्गा भेजने से मना कर दिया। वैसे मुर्गे ने भी सुबह-सुबह बांग देना बंद कर दिया है। पहले कितनी खूबसूरती से वह सबसे पहले बाहर निकल कर आता था। फिर चारों तरफ ध्यान से देखता और उसके बाद बांग देना शुरू कर देता। उसकी आवाज सुनकर आसपास के दूसरे मुर्गे भी बाहर निकल आते और बांग देने लगते। सबके बीच में एक खास किस्म का तालमेल होता था किन्तु अब वह खुद ही अपनी सुविधा और समय अनुसार कभी भी बांग दे देता है। वह खुद भी तो देर तक सोने लगा है, उसे उठाने वाला दगड़ू भी फ्री का अनाज खाकर बेफ़िक्री की नींद सोने लगा है। उसने भी सुन रखा है कि देश से गरीबों की संख्या में कमी आ रही है। वह भी अब निश्चिंत हैं। उसे भी उम्मीद है कि वह भी गरीबों की सूची से जल्दी ही बाहर हो जाएगा।
आजकल मैं सड़कों पर भी नहीं निकलता क्योंकि कई तीतरबाज बटेर लड़ाने में व्यस्त हैं और दूसरी ओर खुले सांड भी घूमते रहते हैं, जब चाहे भिड़ जाते हैं। लोगों को बड़ा मज़ा आता है सांडों की लड़ाई देखने में। बिना पैसे का खेल देखने में क्या जाता है।
मैं तो पाड़ा लड़ाई के मैदान से भी हमेशा अब दूरी बनाने लगा हूं। ठीक है त्योहारों पर मनोरंजन के लिए कभी ये साधन थे लेकिन अब पाड़ों से ज्यादा पाड़ा मालिक अब्दुल चाचा और बद्री काका आपस में भिड़ने लगे हैं। पाड़े दूर भागने लगे हैं, लड़ने-झगड़ने से इंकार करने लगे हैं और उनकी जगह ये खून-खच्चर करने पर उतारू होने लगे हैं।
मुझे लगता है कि अब जब सोलह-बत्तीस इंच की स्क्रीन पर हर तरह की लड़ाई का लुत्फ लिया जा सकता है तो फिर कुत्ते-बिल्लियों की लड़ाई देखने सड़कों पर क्यों उतरा जाए। हां, यह इंसानी फितरत है कि उसे कुत्ते-बिल्ली सहित वे सभी लड़ाइयां आकर्षित करती हैं और इसीलिए मुर्गों की खूनी लड़ाई में भी उसे आनन्द की अनुभूति होती है।
मुझे भी आनन्द आता है यह सब देखने में लेकिन अब सड़क पर नहीं निकलता हूं। बस टीवी ऑन करके विभिन्न चैनलों पर निकल पड़ता हूं जहां कल्लू चाचा या रघु काका जैसे एंकर मुर्गें लड़ाते फिरते हैं। इस लड़ाई में टॉम एंड जैरी का मजा भी लिया जा सकता है।