सुरेश सेठ
पांच दिन की दिवाली पर्व शृंखला उत्साह सहित भैया दूज के साथ संपन्न हो गयी। भारत एक ऐसा देश है, जहां संस्कृति और लोक उत्सवों के प्रति गहरी श्रद्धा है, और ये उत्सव समाज को उमंग और खुशी से भर देते हैं। लेकिन अब जबकि उत्सव संपन्न हो चुके हैं, केवल उसकी परछाइयां बची हैं—घुटन भरा धुआं, खांसते हुए लोग और स्वास्थ्य पर असर डालते प्रदूषण के कारण बीमार होते बच्चे-बुजुर्ग। यह चित्र उत्सवों के बाद की कड़वी हकीकत को उजागर करता है, जब खुशियां भी स्वास्थ्य और पर्यावरण पर भारी पड़ने लगती हैं।
हाल ही में एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग और कूड़े के निस्तारण में निरंतर असफलता के कारण देश की जलवायु पर गंभीर असर पड़ा है। इसके परिणामस्वरूप भारतीयों की औसत आयु में वृद्धि नहीं हो पा रही है, और नई पीढ़ी के बच्चे छोटे कद के पैदा हो रहे हैं। यह जलवायु संकट का सीधा प्रभाव है, जो स्वास्थ्य और विकास को प्रभावित कर रहा है।
मौसमी बीमारियां अब महामारियों के रूप में उभरने लगी हैं। कभी मलेरिया था, जो अब बढ़कर डेंगू बन गया है। कोविड महामारी ने देश को आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर कर दिया था, और जैसे ही उसका दबाव कुछ कम हुआ, मंकीपॉक्स और बिगड़ा हुआ टायफायड नई समस्याएं बनकर उभरे हैं। इन बीमारियों ने देश की स्थिति को और अधिक गंभीर बना दिया है, जिससे समाज का स्वास्थ्य और जीवनशैली प्रभावित हो रही है।
इस बीच, दिवाली के लिए बड़े-बड़े वादे किए गए थे कि इस बार पटाखा रहित, धुआं रहित दिवाली मनाई जाएगी, और लोग शांतिपूर्वक, कानूनी सीमाओं में रहते हुए खुशियां मनाएंगे। लेकिन असलियत यह है कि उत्सवों में शोर-शराबा और प्रदूषण पर नियंत्रण पाना अभी भी चुनौतीपूर्ण बना हुआ है।
दिल्ली और उत्तर भारत के कई शहरों में घुटन का सामना हो रहा था, जिसकी मुख्य वजह पंजाब में पराली जलाना था। सरकारों ने कड़े कदम उठाने का वादा किया था, लेकिन उत्सव के दौरान कानूनी ढील के कारण पराली जलाने की घटनाएं बढ़कर 4 हजार से अधिक हो गईं। दिवाली के बाद इन घटनाओं में 216 नई घटनाएं जुड़ गईं, और संगरूर जैसे खुले इलाके में 59 घटनाएं दर्ज की गईं।
प्रदूषण के अन्य कारण भी स्पष्ट हो गए, जैसे बिगड़ी हुई गाड़ियाँ, उनके जहरीले धुएं, अधबनी सड़कों से उड़ती धूल और बढ़ते कूड़े के ढेर। सफाई कर्मचारी हड़ताल पर थे, और कूड़ा निस्तारण के लिए जरूरी मशीनें या तो मौजूद नहीं थीं, या उनके चलाने वाले प्रशिक्षकों की कमी थी। इस प्रकार, उत्सवों के बाद की नई जिंदगी की उम्मीदें जल्दी ही विफल होती दिखाई दीं, और यह स्थिति निराशा का कारण बन गई।
यह बेतुकी आहें अवैध पटाखों के व्यापार से उत्पन्न हो रही थीं, जो स्पष्ट निर्देशों के बावजूद जारी रहे। लाइसेंसधारी व्यापारियों के लिए निर्धारित नियमों के बावजूद गली-गली और बाजारों में छिपाकर पटाखों का संग्रह कई दिनों तक चलता रहा, जिससे प्रदूषण और मौसम की विषाक्तता बढ़ती गई। दिवाली तो मनाई जा चुकी है, लेकिन उसके प्रभावों ने समाज के माहौल और देश की आर्थिक स्थिति पर गहरी खरोंचें छोड़ दी हैं।
इस दिवाली से उम्मीद थी कि बाजारों में मंदी का असर खत्म हो जाएगा और त्योहारों के उत्साह में खरीदारी से कम मांग का विरोधाभास नहीं दिखाई देगा। सचमुच, दिवाली और उसके बाद के सप्ताह में मांग बढ़ी, लेकिन यह बढ़ोतरी प्रीमियम वस्तुओं में हुई। महंगी कारों और स्वचालित विद्युत उपकरणों की मांग बढ़ी, जबकि संपत्ति के कारोबारियों ने बड़े फ्लैट्स की बढ़ती मांग को देखते हुए छोटे फ्लैट्स के निर्माण की योजनाएं स्थगित कर दीं।
आंकड़े बताते हैं कि उभरते मध्यम वर्ग ने ईएमआई के सहारे नव धनकुबेरों जैसा रूप धारण कर लिया है, और उन्होंने महंगी, आयातित गाड़ियों, बड़े फ्लैट्स, और स्वचालित विद्युत उपकरणों की ओर रुझान बढ़ाया। हालांकि, यह वृद्धि साधारण वस्तुओं में नहीं, बल्कि प्रीमियम वस्तुओं में देखी गई है। वहीं, जनसाधारण के लिए आवश्यक वस्तुओं जैसे आटा, खाद्य तेल, और फल-सब्जियां महंगी हो गई हैं, जिससे गरीबों के लिए दिवाली का आनंद केवल प्रदूषण और महंगाई में तब्दील हो गया है। सस्ते चीनी पटाखों की बिक्री जारी रही। इन सबके बावजूद, त्योहारों की भीड़-भाड़ और उत्सवों में बढ़ी हुई मांग के बावजूद जनसाधारण के लिए आवश्यक वस्तुओं की कोई स्पष्ट मांग नहीं देखी गई।
उत्सवों का यह सत्र तो जारी रहेगा, लेकिन सवाल यह है कि देश कब खुशहाली और राहत से भरे जीवन का स्वागत करेगा? उत्सवों को मनाने में कोई दोष नहीं माना जाना चाहिये, लेकिन हमें ऐसी संस्कृति की आवश्यकता है जो दिवाली के बाद हवा में घुलते जहरीले तत्वों और बढ़ते प्रदूषण से राहत दिला सके। असली उत्सव तब होगा जब हम सुखी, समृद्ध और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदार जीवन जीते हुए, देश को खुशहाली के सूचकांक में तरक्की करते हुए देखें।
लेखक साहित्यकार हैं।