अशोक गौतम
ये ईवीएम महारानी मेरे सपने में क्यों आई होगी? इसे तो उनके सपने में आना चाहिए था जो हर मतदान के बाद अपनी हार का ठीकरा उसके सिर फोड़ते रहे हैं। मैं तो हजार पांच सौ का माल लेकर मतदान महादान वाला दानी हूं। मुझ जैसों को क्या ईवीएम सौ काम?
अब जब कोई आपके सपने और घर में आ ही जाए तो आप क्या कर सकते हैं? उसे धक्के मारकर अपने सपने, घर से निकाल तो नहीं सकते न! अतिथि चाहे घर में आया हो चाहे सपने में, वह देवोभवः ही होता है।
सो मैंने उसे चारपाई पर बैठा दिया, सादर। फिर उसे नार्मल करने की कोशिश करते पूछा, ‘कुछ लोगी क्या! ठंडा या…?’
‘नहीं! इस वक्त मैं ठंडे से बहुत ऊपर उठी हूं। अभी किसी भी कंपनी का ठंडा मेरा दिमाग ठंडा नहीं कर सकता। देख नहीं रहे, इस वक्त मैं परेशान नहीं, कितनी अधिक परेशान हूं’, कह उसने अपनी परेशानी मेरे सामने सजानी शुरू की। आह! क्या दिन आ गए! समाज की संवेदनाएं अर्जित करने के लिए अब अपनी परेशानियां दूसरों के सामने सजा कर रखनी पड़ रही हैं।
‘अब परेशानी वाली बात क्या है? सब खुश तो हैं। ऐसे में बेकार में परेशान होना हो तो होती रहो। जाओ, अब तुम भी जीते हारे नेताओं की तरह चैन से सो जाओ और मुझे भी चैन से सोने दो।’
‘पर कैसे? जीत वाले तो अपनी जीत में मस्त होने ही थे, पर हारने वाले जीतने वालों से अधिक मस्त हैं। ये आखिर अबके हो क्या रहा है? हारने वाले मुझे कोस क्यों नहीं रहे? अपनी हार का ठीकरा मेरे सिर फोड़ क्यों नहीं रहे? वे मेरे सिर अपनी हार का ठीकरा फोड़ शांत हो जाएं तो मैं भी अपने सिर उनकी हार का ठीकरा फुड़वा उनकी हार के मिथ्या दोष से फ्री हो जाऊं’, जिसे एक बार किसी की भी हार का ठीकरा अपने सिर फुड़वाने की लत पड़ जाए उसके हाल ऐसे ही होते हैं। मित्रो!
‘डियर! मुझे तो अब हर चुनाव के बाद हारने वालों की हार का ठीकरा अपने सिर फुड़वाने की आदत-सी हो गई है। इसलिए अबके भी हारने वालों का मेरे सिर अपनी हार का ठीकरा फोड़ने की ओर ध्यान क्यों नहीं जा रहा? मैं उनकी हार का ठीकरा अपने सिर फुड़वाने को बेकरार हूं बंधु! मेरा मन अशांत हो रहा है। मेरे दिमाग की नसें फटने को हो रही हैं। ऐसे में तुम ही अपनी किसी विजित हार का ठीकरा मेरे सिर फोड़ दो न प्लीज! ताकि मेरी आत्मा को शांति मिल सके।’