श्रीलंका में दसवीं संसद के लिए मतदान गुरुवार को संपन्न हो गया। राष्ट्रपति अनुरा कुमारा दिसानायके के पदभार ग्रहण करने के बाद गठित होने वाली यह पहली संसद होगी। पिछला संसदीय चुनाव अगस्त, 2020 में आयोजित किया गया था, जब देश कोविड की चपेट में था। इस चुनाव में 196 सांसद मतपत्रों के द्वारा चुने जायेंगे, शेष 29 लोग राष्ट्रीय सूची में नामित किये जायेंगे। इस बार पंजीकृत राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करने वाले कुल 8821 उम्मीदवार हैं। जिनमें राजनीतिक दलों के 5,464 उम्मीदवार और स्वतंत्र समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले 3357 उम्मीदवार अपनी क़िस्मत आज़मा रहे थे। सबसे अधिक 19 सांसद गम्पाहा जिले से और सबसे कम चार सदस्य त्रिंकोमाली जिले से चुने जाएंगे। प्रमुख उम्मीदवारों में पूर्व विपक्षी नेता साजिथ प्रेमदास और प्रधानमंत्री हरिनी अमरसूर्या शामिल हैं। पिछले कुछ दशकों से श्रीलंका की राजनीति पर हावी रहे राजपक्षे भाइयों में से कोई भी इस बार चुनाव नहीं लड़ रहा है। श्रीलंका की राजनीति के लिए यही सबसे बड़ी खबर है।
क्या श्रीलंका से ‘डायनेस्टी पॉलिटिक्स’ की विदाई हो गई? कम लोगों ने कल्पना की होगी, कि श्रीलंका की राजनीति से परिवारवाद की ऐसी विदाई होगी। एक ऐसा परिवारवाद, जिसे चीन का अभयदान मिला हुआ था। कई वर्षों तक महिंदा के नेतृत्व में राजपक्षे परिवार ने श्रीलंका की राजनीति पर अपनी पकड़ बनाए रखी। अपने पहले कार्यकाल में महिंदा राजपक्षे ने तमिल टाइगर विद्रोहियों के खूनी अंत का नेतृत्व किया था। उस फतह ने उन्हें द्वीप के बहुसंख्यक सिंहली लोगों के बीच एक राष्ट्रीय ‘रक्षक’ के रूप में स्थापित करने में मदद की। उनके उत्साही समर्थकों ने महिंदा राजपक्षे की तुलना एक चक्रवर्ती सम्राट से की थी।
महिंदा राजपक्षे जैसे-जैसे मज़बूत होते गए, वैसे-वैसे उनका परिवार भी शक्तिशाली होता गया। उन्होंने अपने छोटे भाई, गोटाबाया को रक्षा मंत्री नियुक्त किया। आलोचकों का कहना है कि गोटाबाया ने इस पद को निर्दयतापूर्वक संभाला। दो अन्य भाई-बेसिल और चमल- क्रमशः वित्त मंत्री और संसदीय अध्यक्ष के पदों पर पहुंचे। बेटा नमल भी मंत्री बना। बाद में गोटाबाया ने 18 नवंबर, 2019 से श्रीलंका के आठवें राष्ट्रपति के रूप में कार्य किया। राजपक्षे परिवार ने सिंहली राष्ट्रवाद को आधार बनाकर अखंड राज किया। सिंहली राष्ट्रवाद का जलवा था, कि ये लोग वर्षों तक भ्रष्टाचार, आर्थिक कुशासन, मानवाधिकार हनन के आरोपों से बचे रहे।
लेकिन यह सब 2022 में बदल चुका था। बदतर आर्थिक संकट को ये संभाल नहीं पाए। पब्लिक सड़क पर उतर आई। सत्ता, सड़क से नियंत्रित हो रही थी। उन महीनों में सिंहली का लोकप्रिय शब्द ‘अरागालय’ (संघर्ष) का उदय हुआ। 13 जुलाई, 2022 को श्रीलंका के राष्ट्रपति के पैलेस में घुस आई भीड़ यह सुनिश्चित कर चुकी थी कि राजपक्षे परिवार खत्म हो गया। लेफ्टिस्ट ‘जेवीपी’ ने ‘अरागालय’ के ज़रिये पूरे देश में अपनी पैठ मजबूत कर ली। उसमें उत्तर और पूर्व के उन हिस्सों को छोड़कर, जहां तमिल बहुसंख्यक हैं। ‘जेवीपी’ ने इस बात पर जोर दिया कि आर्थिक समानता हासिल की जानी चाहिए, और देश के व्यापक भ्रष्टाचार और भ्रष्ट राजनीतिक खिलाड़ियों को खत्म किया जाना चाहिए।
लेकिन, तब भी परिवारवाद की जड़ें समाप्त नहीं हुई थी। श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के देश छोड़कर सिंगापुर चले जाने, और वहीं से इस्तीफ़ा भेज देने के बाद रनिल विक्रमसिंघे राष्ट्रपति बनाये गए, जो अप्रत्यक्ष रूप से राजपक्षे परिवार की मदद कर रहे थे। गोटाबाया राजपक्षे अपमानजनक प्रस्थान के सिर्फ़ 50 दिन बाद ही वापस श्रीलंका लौट आए। पहले सिंगापुर, और फिर थाईलैंड से वापस लौटने पर, उन्हें एक पूर्व राष्ट्रपति के विशेषाधिकार दिए गए : एक आलीशान बंगला और सुरक्षा, जिसका सारा खर्च सरकार ने उठाया। इतनी मदद के बाद भी रनिल विक्रमसिंघे का भला राजपक्षे परिवार ने नहीं किया। 21 सितंबर, 2024 को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए महिंदा राजपक्षे के बेटे, नमल को उतार दिया गया। चुनाव परिणाम राजपक्षे परिवार के लिए काफी निराशाजनक था। नमल को तीन प्रतिशत भी वोट नहीं मिले। वो चौथे स्थान पर थे, और रनिल विक्रमसिंघे तीसरे पर।
छह बार प्रधानमंत्री रह चुके रनिल विक्रमसिंघे 2020 के संसदीय चुनावों में अपनी यूनाइटेड नेशनल पार्टी के खराब प्रदर्शन के बाद पार्टी के एकमात्र सांसद थे। श्रीलंका में विद्रोह के बाद कहने के लिए उन्होंने अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया था। लेकिन उन पर राजपक्षे परिवार की रक्षा करने, उन्हें फिर से संगठित होने की अनुमति देने, और अभियोजन से बचाने का आरोप लगता रहा। हालांकि, इन आरोपों से उन्होंने इनकार किया है। लेकिन इन चक्करों में रनिल विक्रमसिंघे ने अपनी यूनाइटेड नेशनल पार्टी के लिए बड़ा-सा गड्ढा खोद दिया।
अब सवाल है, कि नई संसद राजपक्षे परिवार को आलीशान बंगला और सुरक्षा मुहैया कराती है, कि नहीं? क्या चीन की श्रीलंका कूटनीति, राजपक्षे कुनबे को संरक्षण देने की वजह से पूरी तरह चौपट हो गई? इस मामले में नई दिल्ली का गणित सफल रहा है। फ़रवरी, 2024 में अनुरा कुमारा दिसानायके जब भारत आए थे, तो किसी ने शायद ही सोचा था कि क़रीब सात महीने बाद वो श्रीलंका के राष्ट्रपति बनेंगे। अनुरा कुमारा दिसानायके ने इस समय वोटरों का मिज़ाज समझकर, समय पूर्व संसदीय चुनाव कराने का सही फैसला लिया था। वहां के राजनीतिक पंडित भी मानते हैं कि डबल इंजन की सरकार की संभावना इस वजह से अधिक है। सरकार तो वामपंथियों की बन जाएगी, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती देश को आर्थिक पटरी पर लाने की रहेगी। श्रीलंका ने जापान, भारत और अन्य देशों के साथ 5.8 अरब डॉलर के ऋण पुनर्गठन समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। पहले से जो क़र्ज़ हैं, जिसमें चीन का हिस्सा सबसे अधिक है, उसे चुकाने के वास्ते 2028 तक का समय मिला है।
जून, 2022 तक चीन के पास श्रीलंका के द्विपक्षीय ऋण का 52 प्रतिशत हिस्सा था। जापान 20 प्रतिशत के साथ दूसरा सबसे बड़ा ऋणदाता था, उसके बाद भारत 12 प्रतिशत, और फ्रांस तीन प्रतिशत के साथ चौथे स्थान पर था। भारत में जापान के राजदूत हिरोशी सुजुकी ने कहा, ‘जापान दक्षिण एशियाई परियोजनाओं पर भारत के साथ काम करने के लिए उत्सुक है। भारत और श्रीलंका को प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के ‘स्वतंत्र और खुले इंडो पैसिफिक’ के दृष्टिकोण को साकार करने के लिए अपरिहार्य साझेदार के रूप में देखता है।’
श्रीलंका को संवारने में भारत और जापान यदि लीड ले रहे हैं, तो इसके कूटनीतिक निहितार्थ को समझिये। आप श्रीलंका और नेपाल के हवाले से कह सकते हैं, कि दक्षिणपंथ को वामपंथ के साथ बगलगीर करना, मोदी कूटनीति का मास्टर स्ट्रोक है!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।