गुरबचन जगत
यह कहानी नयी नहीं है, लेकिन उन कुछ यादों में से एक है, जो लंबे समय से मुझे विस्मृत करती आई है और वह यह कि पश्चिमी देश, मसलन, यूके, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और कुछ हद तक ग्रीस, इटली इत्यादि में बसे पंजाबी भाईचारे के किस्से। यहां मैं बात को पंजाबियों तक सीमित रखूंगा क्योंकि इनके बारे में मुझे केरल और तमिल बंधुओं से ज्यादा पता है, हालांकि जहां कहीं ये लोग भी गए हैं, वहां-वहां कमाल किया है।
मुख्यतः बेहतर कमाई और जिंदगी बिताने का मौका पाने के लिहाज से इनसान नयी जगह तलाशता है। आज हम देखते हैं कि बड़ी संख्या में विद्यार्थी उच्च शिक्षा और उसके बाद रोजगार पाने के लिए विदेशों का रुख कर रहे हैं। लेकिन मैं बात उन आरंभिक प्रवासियों की करना चाहूंगा, जिन्होंने पिछली सदी के 50 के दशक की शुरुआत में विदेश जाकर कमाई करने में पहल की। वहां सबसे पहले जाने वालों में पंजाब के दोआबा क्षेत्र के वे युवा थे जो ज्यादातर अर्धशिक्षित या अनपढ़ थे। इनमें वे भी थे, जिनका परिवार विभाजन के वक्त उजड़कर भारत आया और पूरी तरह स्थापित नहीं हो सका। वे काम-धंधे की तलाश में यूके गए ताकि कमाई से परिवार पाल सकें। यूके जैसे सर्द देश में उन्हें खुले में चलने वाली स्टील भट्ठियां और खदान मजदूरी जैसे कठिन काम ज्यादा करने पड़े क्योंकि इनमें बाकियों से ज्यादा वेतन था, हालांकि उन्हें मेहनताना ब्रिटिश मानकों के हिसाब काफी कम मिलता था। मुझे उन पर हैरानी होती है, जिन्हें न तो अंग्रेजी बोलनी आती थी, न ही उनकी संस्कृति का इल्म था, बस एक खोलनुमा दायरे में सिमट कर रहना। मैंने सुना था कि वे लोग अपने कमरों में यह याद रखने को दीवार पर चॉक से निशान लगा लिया करते थे कि कितने स्टेशन के बाद उतरना है।
इसी बीच प्रवासी भारतीयों के पास बचत जुड़ने लगी, जिसे वे घर भेजने लगे। लेकिन इससे एक समानांतर अर्थव्यवस्था बन गई, क्योंकि पैसा उस गैर-आधिकारिक व्यवस्था के जरिए आने लगा, जिसमें सरकारी रेट से ज्यादा विनिमय मिले। मुझे याद है, एक समय पर ब्रिटिश पाउंड का आधिकारिक मूल्य 18 रुपये था जबकि काले बाजार में 30 रुपये हुआ करता था। कतिपय ट्रैवल एजेंट, सरकारी अधिकारी इस धंधे में शामिल थे और ‘हवाला’ के जरिए आया रुपया गांवों तक पहुंचाने वालों की एक समानांतर प्रणाली बन गई थी। फोन सुविधा की अनुपस्थिति में अंतर्देशीय डाक का इस्तेमाल किया जाता था, रकम का जिक्र कोड में होता था। कुछेक ट्रैवल एजेंट इस धंधे से अरबपति बन गए और चंद तो मंत्री तक हो लिए।
इससे पूरे पंजाब की आर्थिकी में नया दौर आया, दोपहिया वाहनों पर नये कपड़े पहने या हाथ में ट्रांजिस्टर लिए दिखने वाले ग्रामीणों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई। जमीन की कीमतें ऊपर उठने लगीं क्योंकि आप्रवासियों के पैसे से भूखंडों की मांग बढ़ गई। इससे उत्साहित होकर युवा और ज्यादा संख्या में विदेशों का रुख करने लगे। अगली पीढ़ी के आने के साथ यूके और पंजाब में जीवनस्तर और सोच में बदलाव आने लगा। जहां आप्रवासियों की दूसरी पीढ़ी में भी इस बात को लेकर असमंजस था कि कहीं वापसी न करनी पड़े, किंतु तीसरी पीढ़ी, जिसका जन्म और पढ़ाई विदेशों में हुई है, उसकी मानसिकता एकदम अलग हो गई, उसे भारत वापस लौटने के बारे में सोचना भी गवारा नहीं था। उन्होंने न केवल स्थानीय तौर-तरीकों को अपना लिया बल्कि नाना काम-धंधे, उद्योग और अन्य व्यावसायिक कामों में पैठ बना ली। पंजाब आने वाला धन घटने लगा, साथ ही जमीनें खरीदने का मोह भी कम होता गया। 1980 और 90 के दशक में पंजाब में चली गड़बड़ ने पंजाबियों की घर-वापसी की रही-सही कामना को भी खत्म कर डाला। यहां तक कि पहली लहर में गए लोगों ने भी विदेशों में रहना तय किया। इससे पंजाब के आसमान पर उभरने वाली ऊंची इमारतें और शानदार मैरिज पैलेस वाले मंज़र में ठहराव आ गया, यहां तक कि भारत वाली जमीन-जायदाद बेचकर पैसा विदेश ले जाने का उल्टा चलन शुरू हो गया।
इसी बीच ट्रैवल एजेंट, आप्रवासी, सरकारी अधिकारी और विभिन्न विचारधारा वाले राजनेताओं से बना मजबूत गठजोड़ पैदा हो गया। चुनाव में फंड प्राप्ति के लिए आप्रवासी भारतीय एकाएक बहुत प्रभावशाली हो गए। यदि उस वक्त राजनेताओं ने अपने हितों से परे सोचा होता तो आज पंजाब का हुलिया कुछ और होता। सत्ता में आई सभी प्रकार की सरकारों ने प्रवासी सम्मेलन आयोजित किए, उनका निवेश पाने और औद्योगिकीकरण में विशेषज्ञता प्राप्त करने को अलग विशेष विभाग भी स्थापित किए, लेकिन परिणाम सिफर रहने से यह तमाशा ‘मेला’ ही साबित हुए। जहां तक मुझे ज्ञान है, इन लोगों की मदद से एक भी बड़ा उद्योग पंजाब में नहीं लग पाया। पहले-पहल अाप्रवासियों ने निवेश करने में काफी रुचि दिखाई थी और सरकार की प्रतिक्रिया का इंतजार किया, लेकिन मायूस होकर खाली हाथ वापस लौट गए। केवल सरकार की थोड़ी-सी पहलकदमी और लालफीताशाही कम करके पंजाब में औद्योगिकीकरण हो गया होता तो युवाओं के लिए रोजगार बनता। अाप्रवासी न केवल काम-धंधे की संभावना में इजाफा करने में बल्कि सूबे में विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा संस्थान और उद्योग स्थापित करने में भी सहायक सिद्ध होते और उनकी विशेषज्ञता लाभदायक होती। जिस एक अन्य क्षेत्र में काफी विकास होता, वह है स्वास्थ्य सेवाएं, यहां पर सर्वोत्कृष्ट सुविधा संपन्न अस्पताल खुल सकते थे और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त आप्रवासी डॉक्टर इस काम में मदद करते। मेडिकल शिक्षा और अनुसंधान को नयी ऊंचाइयां मिलती। लेकिन, हमारी नौकरशाही, राजनीतिक दल और सरकार विकास की राह में मददगार न होकर रुकावट ज्यादा हैं। यदि राजनीतिक ताकत का उपयोग जनकल्याण की बजाय केवल निजी उत्थान के लिए करना है तो इस शक्ति का प्रयोजन क्या है?
मैंने केवल मानव संसाधन का उल्लेख किया, जिसका इस्तेमाल पंजाब का कायाकल्प करने में हो सकता था। इससे हम एक बेहतर, सहृदय, स्वस्थ और शिक्षित समाज बना पाते। तब पंजाब से विदेश जाने वालों का तांता लगने की बजाय यह अन्यों के लिए गंतव्य बनता। पंजाब का विशिष्ट स्रोत इसकी मानव शक्ति रही है, लेकिन अब नहीं। बेरोजगारी, स्तरहीन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं ने हमें इस जगह पंहुचा दिया है।
पंजाबियों के लिए मेरी दलील मजबूत करने को कहना चाहूंगा कि विदेश पहुंचकर नये सिरे से जिंदगी बनाने को व्यापार, काम-धंधे स्थापित करने और अन्य क्षेत्रों में पाई सफलता सबूत है। आज पंजाबी उन देशों की राजनीति और सामाजिक क्षेत्रों में दाखिल होकर खासे प्रसिद्ध हो चुके हैं। आज की तारीख में यूके, स्कॉटलैंड, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया की संसद में पंजाबी सांसद हैं। कनाडा के मंत्रिमंडल में तो काफी संख्या में पंजाबी मंत्री हैं। कुछ यूके में तो कुछेक अमेरिका में ऊंचे सरकारी ओहदों पर भी हैं। अनेकानेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुखिया और विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में ख्याति प्राप्त अनुसंधानकर्ता भी हैं।
सामाजिक पहलू की बात करें तो एक उदाहरण, जिसने पश्चिमी जगत का ध्यान खींचा है-सिख धर्म का लंगर सिद्धांत-न केवल गुरुद्वारों में आने वालों के लिए सभी को मुफ्त भोजन मिलता है बल्कि आपातकालीन स्थितियों में भी यह लोग लंगर लगाते हैं। फिर चाहे यह बेल्जियम में हुई हालिया हवाई दुर्घटना या कोई रेल-दुर्घटना या फिर अकाल, भूकंप, बाढ़ और अब कोविड महामारी हो, ‘खालसा एड’ जैसी सिख संस्थाएं सबसे पहले वहां पहुंचती हैं। खोज एवं राहत अभियान में हिस्सा लेने के अलावा वहां सबके लिए लंगर चलाते हैं-सादा किंतु पौष्टिक एवं समुचित भोजन। यह वह सामाजिक सेवा है जो पंजाबी युवा विदेशों में करते हैं-वह देश जिसे उन्होंने अपनाया है, उसके प्रति फर्ज के तौर पर। कल्पना करें कि यदि पंजाब में विभिन्न क्षेत्रों में इनकी मदद ली होती, तब इनके योगदान से कितना लाभ मिल सकता था। काश, पंजाब के पास सर्वांगीण तरक्की करवाने को समर्पित कोई ऐसा दूरंदेशी नेता होता जो आप्रवासी पंजाबियों को साथ जोड़कर दिल से अपनी मातृभूमि-समाज का विकास करने की इच्छाशक्ति दिखाता।
आज भी, विदेशी सरकारें और उद्योग पंजाबियों को एक बेहतरीन मानव संसाधन मानते हैं, जो जल्द नयी परिस्थितियों में ढलकर समाज में योगदान करते हैं। अतएव ‘चलो विदेश…ऐ नौजवां’ – बेशक लौटना संभव न हो- यह चलन आज भी कायम है। हमारे युवा बच्चे बारहवीं की शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा के लिए विदेश जा रहे हैं और इनमें अधिकांश वहां रोजगार पा लेंगे या फिर नये उद्यमी बन जाएंगे क्योंकि वहां योग्यता के मुताबिक काम करने वालों की कद्र है। आज हमारे गांव युवाओं से खाली होते जा रहे हैं और शहर-कस्बों की कोठियों में ज्यादातर वे वृद्ध दंपति दिखाई देते हैं, जिनकी दो पीढ़ियां विदेशों में बस चुकी हैं। उनकी मद्धम नज़र विदेशों की ओर लगी हैं जहां उनकी प्रिय संतानें अपना मुस्तकबिल बनाने में व्यस्त हैं। बिना शक, वे ‘भद्रजन’, जिन्होंने दशकों तक इस मुल्क पर राज किया है, उनके बच्चों को नौकरी-रोजगार के लिए विदेशों जाने की क्या जरूरत, उन्होंने तो कमाई के लिए विशाल बेनामी स्रोत बना रखे हैं। उन्हें न तो परिजनों से बिछोड़े का संताप सहना पड़ता है, न ही अकेलेपन से जूझना पड़ता है। वे तो ‘राजा’ लोग हैं और हम लोग उनकी नाचीज़ प्रजा, हमारा-उनका मिलन पांच साल में एक बार होता है और तब हम पुनः उन्हें अपने सिर पर सवार करवा लेते हैं।
अंत में, उन जीवट युवाओं को सलाम जो नयी जिंदगी के लिए विदेशी भूमि का रुख यह जाने बिना करते हैं कि भविष्य में क्या बदा है-भट्ठियां या खदानें, रहने को कबूतरखाने जैसी कोठरियां और समाज से कटकर रहने की संभावना। किंतु उन्हें यह पहलकदमी और बलिदान अपने, बच्चों और भावी पीढ़ियों का भविष्य संवारने के लिए करना पड़ता है। विश्वभर में ऐसे पंजाबी फैले हुए हैं, लेकिन पंजाब आज भी उनके दिल में जिंदा है। वैसे तो यह बात उदास करने और डराने वाली है, पर कहनी पड़ती हैः ‘चलो विदेश ..ऐ नौजवां’, जहां तुम्हारे पुरखों ने नयी जड़ें पकड़ी थीं।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल, संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।